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________________ १३० अनेकान्त "मुख्तार साहव तथा न्यायाचार्यजीने जिस आधारपर 'योगीन्द्र' शब्दका उल्लेख प्रभाचन्द्र-कृत स्वीकार कर लिया है वह भी बहुत कच्चा है। उन्होंने जो कुछ उसके लिये प्रमाण दिये है उनसे जान पड़ता है कि उक्त दोनों विद्वानामे में किसी एकने भी अभी तक न प्रभाचन्द्रका कथाकोष स्वयं देखा है और न कही यह स्पष्ट पढा या किसीसे सुना कि प्रभाचन्द्रकृत कथाकोषमे समन्तभद्रके लिये 'योगीन्द्र' शब्द आया है। केवल प्रमीजीन कोई बीस वर्ष पूर्व यह लिख भेजा था कि "दोनों कथाश्रम कोई विशेष फर्क नहीं हे, नमित्तकी कथा प्रभाचन्द्रकी गद्यकथाका प्रायः पूर्ण अनुवाद है" । उसी के आधारपर आज उक्त दोनों विद्वानोंकी "यह कहने कोई आपत्ति मालूम नहीं होती कि प्रभाचन्द्र ने भी अपने गद्य-कथाकोपमे स्वामी समन्तभद्रको 'योगीन्द्र' रूपमें उल्लेखित किया है ।" [ वर्ष ९ तपस्वीवाले वेषके साथ। ऐसा भी नहीं कि पाण्डुराङ्गतपस्वीके वेषवाले ही 'योगी' कहे जाते हों जैनवेषवाले मुनियोंको योगी न कहा जाता हो । यदि ऐसा होता तो रत्नकरण्डकं कर्ताको भी 'यागीन्द्र' विशेषणसे उल्लेखित न किया जाता । वास्तवमे 'योगी' एक सामान्य शब्द है जो ऋषि, मुनि, यति, तपस्वी आदिकका वाचक हैं; जैसा कि धनञ्जय नाममाला के निम्न वाक्यसे प्रकट हैऋषिर्यनिर्मुनिर्भिन्तुस्तापसः मयतो व्रती । तपस्वी मयमी योगी वर्णी साधुश्च पातु वः ॥३॥ जैन साहित्यमे योगी की अपेक्षा यति-मुनि-तपस्वी जैसे शब्दों का प्रयोग अधिक पाया जाता है, जा उसके पर्याय नाम है । रत्नकरण्डमे भी यांत, मुनि और तपस्वी शब्द योगी के लिये व्यवहृत हुए हैं । तपस्वीको श्राप्त तथा आगमकी तरह सम्यग्दर्शनका विषयभूत पदार्थ बतलाते हुए उसका जो स्वरूप एक पद्म' में दिया है वह ग्वासतौर से ध्यान देने योग्य ह । उसमें लिखा है कि- 'जा इन्द्रिय-विषयों तथा इच्छाओंक वशीभूत नहीं है, आरम्भों तथा परिग्रहांसे राहत है और ज्ञान, ध्यान एव तपश्चरणांम लीन रहता है वह तपस्वी प्रशसनीय है।' इस लक्षणमं भिन्न योगीके और कोई सीन नहीं होते । एक स्थानपर सामायिक्रम स्थित गृहस्थको 'चलोपसृष्टमुनि' की तरह यतिभावको प्राप्त हुआ लिम्बा हूं" ।" चलापसृष्टमुनिका अभिप्राय उस नम दिगम्बर जैन योगी है जा मौन-पूर्वक योग-साधना करता हुआ ध्यानमग्न हो और उस समय किसीने उसको वस्त्र ओढा दिया हो, जिसे वह अपने लिये उपसग समझता है । सामायिकमे स्थित वस्त्रमहित गृहस्थको उस मुनिकी उपमा देते हुए उसे जा यतिभाव-योगी कं भावको प्राप्त हुआ लिखा है और अगले पद्यमे उसे "अचल योग" मा बतलाया है उससे स्पष्ट जाना १ विषयाऽऽशा-वशाऽतीता निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञान-ध्यान तपोरतस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥ १० ॥ २ सामयिके सारम्भाः परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि । चोपसृष्टमुनिरिव गृही तदा यानि यतिभावम ॥ १०२ ॥ इसपर प्रभाचन्द्र के गद्यकथाकोपको मँगाकर देखा गया और उसपर से समन्तभद्रका 'योगी' तथा 'योगीन्द्र' बनलान वाले जब डेढ दर्जन के करीब प्रमाण न्यायाचार्यजीन अपने अन्तिम लेख 'मे उद्धृत किये तब उसके उत्तरमे प्रो० साहब अब अपने पिछले लेख में यह कहने बैठे है, जिसे वे नमिदन- कथाकोपके अनुकूल पहले भी कह सकते थे, कि " कथानकमे समन्तभद्रको केवल उनके कपटवषमे ही योगी या योगीन्द्र कहा है, उनक जैनवषम कही भी उक्त शब्दका प्रयोग नहीं पाया जाता" | यह उत्तर भी वास्तवमे कोइ उत्तर नही है । इसे भी केवल उत्तरके लिये ही उत्तर कहा जा सकता है। क्योकि समन्तभद्रकं याग चमत्कारको देखकर जब शिवकोटिराजा, उनके भाई शिवायन और प्रजाके बहुत जन जैनधर्ममं दीक्षित होगये तत्र योगरूपमे समन्तभद्रकी ख्यानि तो और भी बढ़ गई होगी और वे आम तौर पर योगिराज कहलाने लगे होंगे, इसे हर कोई समझ सकता है; क्योंकि वह योगचमत्कार समन्तभद्रकं साथ सम्बद्ध था न कि उनके पाण्डुराङ्ग१ अनेकान्त वर्ष ८, किरण १०-११ पृ० ४२०-२१
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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