________________
किरण ३]
ग्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयम मेरा विचार और निर्णय
१३१
का सिद्ध होना कोई अनोखी बात नहीं कही जा योगीन्द्र माननेके लिये तय्यार न हो, खासकर उम सकती। उनका 'जिनशतक' उनके अपूर्व व्याकरण- हालतमे जबकि वे धर्माचार्य थे-सम्यग्दर्शन, ज्ञान, पाण्डित्य और शब्दोंके एकाधिपत्यको सूचित करता चारित्र, तप और वीर्यरूप पश्च आचाराका स्वय है। पूज्यपादन तो अपने जैनेन्द्रव्याकरणमें 'पतुष्टय आचरण करनेवाले और दूसरोंको आचरण कराने समन्तभद्रस्य' यह सूत्र रखकर समन्तभद्र-द्वारा होने वाले दीक्षागुरुके रूपमे थे- 'पदर्द्धिक' थे तपके बलपर वाली शब्दमिद्धिको स्पष्ट सूचित भी किया है, जिम चारणऋद्धिको प्राप्त थे और उन्होंने अपने मंत्रमय परसं उनके व्याकरण-शास्त्रकी भी सूचना मिलती है। वचनबलसे शिवपिण्डीम चन्द्रप्रभकी प्रतिमाको बुला
और श्रीप्रभाचन्द्राचार्यने अपने गद्यकथाकोशमे उन्हें लिया था ('स्वमन्त्रवचन-व्याहूत चन्द्रप्रभः') । योगतकशास्त्रकी तरह व्याकरण-शास्त्रका भी व्याख्याता साधना जैन मुनिका पहला कार्य होता है और इस (निर्माता)' लिखा है । इन पर भी प्रो० माहबका लिये जैन मुनिको 'योगी' कहना एक सामान्य-सी अपने पिछले लेखमे यह लिखना कि "उनका बनाया बात है, फिर धर्माचार्य अथवा दीक्षागुरु मुनीन्द्रका हुआ न ता कोई शब्दशास्त्र उपलब्ध है और न उमके तो योगी अथवा योगीन्द्र होना और भी अवश्यकाइ प्राचान प्रामाणिक उल्लेख पाये जाते है" व्यर्थ भावी तथा अनिवार्य हो जाता है। इसीसे जिस की खींचतानके सिवाय और कुछ भी अर्थ नहीं वीरशासनके स्वामी ममन्तभद्र अनन्य उपासक थे रखता। यदि आज कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है तो उसका स्वरूप बतलाते हुए, युक्त्यनुशासन (का०६)मे उसका यह आशय तो नहीं लिया जा सकता कि वह उन्होंन दया, दम और त्यागक साथ समाधि (यागकभी था ही नहीं। वादिराजक ही द्वारा पाश्वनाथ- साधना)को भी उसका प्रधान अङ्ग बतलाया है । तब चरितम उल्लिखित 'मन्मतिसूत्र'की वह विवृति और यह कैसे हो सकता है कि वीरशासनके अनन्यविशेषवादीकी वह कृति आज कहा मिल रही है ? उपासक भी याग-साधना न करते हो और इमलिये यदि उनके न मिलने मात्रसे वादिराजक उल्लेख- यागी न कह जाते हो? विषयमे अन्यथा कल्पना नहीं की जा सकती तो फिर मबसे पहले सुहद्वर प. नाथूरामजी प्रेमीने इम समन्तभद्रक शब्दशास्त्रकं उपलब्ध न होन मात्र हा योगीन्द्र विषयक चर्चाका 'क्या रत्नकरण्डक का वैमी कल्पना क्यों की जानी है ? उसम कुछ भी स्वामी ममन्तभद्र ही है ?' हम शीर्षकके अपने लेखम
औचित्य मालूम नहीं होता। अत: वादिराजक उक्त उठाया था और यहाँ तक लिख दिया था कि द्वितीय पद्य न०१८का यथावस्थित क्रमकी दृष्टिसं "योगीन्द्र-जेमा विशेषण ता उन्ह (ममन्तभद्रको) समन्तभद्र-विषयक अथ लेनम किसी भी बाधाकं कही भी नहीं दिया गया।" इसके उत्तरमे जब मैन लिय कोई स्थान नहीं है।
'म्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, ताकिक और योगी ___ रही तीसरे पद्यकी बात, उममे 'योगीन्द्र.' पदका नानी थे' इस शीर्षकका लख लिया और उसम लकर जो वादविवाद अथवा झमला खड़ा किया गया अनक प्रमाणीक आधारपर यह स्पष्ट किया गया कि है उसमें कुछ भी सार नहीं है। कोई भी बुद्धिमान ममन्तभद्र योगीन्द्र थे तथा 'योगी' और 'योगीन्द्र' ऐमा नहीं हो सकता जो समन्तभद्रका यागी अथवा विशेपणोका उनके नामके साथ स्पष्ट उल्लेख भी १ अनेकान्त वर्ष ८ किरण १०-११ पृ० ४१६
बनलाया गया तब प्रेमीजी तो उस विषयमे मौन हा २ 'जैनग्रन्थावलीम रॉयल एशयाटिक मोमाइटीकी रिपोर्टक रहे, परन्तु प्रा. साहबने इम चर्चाको यह लिखकर
आधारपर समन्तभद्रक एक पाकृत व्याकरणका नामा- लम्बा किया किल्लेख है बार उसे १२०० श्लोकपारमाण सूचित १ अनेकान्त वर्ष ७ किरण ३-४, पृ० २६, ३० किया है।
२ अनेकान्त वर्ष किरण ५-६, पृ० १२४८