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अनेकान्त
रूप में समन्तभद्र को भी 'देव' पदके द्वारा उल्लेखित करनेके कारण मौजूद थे। इसके सिवाय, प्रो० साहब ने श्लेषार्थको लिये हुए जो एक पद्य 'देवं स्वामिनममलं विद्यानन्दं प्रणम्य निजभक्त्या' इत्यादि उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है उसका अर्थ जब स्वामी समन्तभद्र-परक किया जाता तब 'देव' पद स्वामी समन्तभद्रका, अकलङ्क-परक अर्थ करनेसे अकलङ्कका और विद्यानन्द-परक अर्थ करनेसे विद्यानन्दका ही वाचक होता है। इससे समन्तभद्र नाम माथमे न रहते हुए भी समन्तभद्रके लिये 'देव' पदका अलग प्रयोग अघटित नहीं है, यह प्रो० साहब द्वारा प्रस्तुत किये गये पद्यसे भी जाना जाता है ।
यह भी नहीं कहा जा सकता कि वादिराज 'देव' शब्दको एकान्ततः 'देवनन्दी' का वाचक समझते थे और वैसा समझनेके कारण ही उन्होंने उक्त पद्यम देवनन्दीके लिये उसका प्रयोग किया है; क्योंकि बादिराज ने अपने न्याय-विनिश्चय-विवरण में अकलङ्कके लिये 'देव' पदका बहुत प्रयोग किया है', इतना ही नहीं बल्कि पार्श्वनाथचरितमं भी वे 'तर्कभू वल्लभो देवः स जयत्यकलङ्कधी : ' इस वाक्यम प्रयुक्त हुए 'देव' पदके द्वारा अकलङ्कका उल्लेख कर रह है । और जब अकलङ्क के लिये वे 'देव' पदका उल्लेख कर रहे है तब अकलसे भी बड़े और उनके भी पृज्यगुरु समन्तभद्रके लिय 'देव' पदका प्रयोग करना कुछ भी अस्वाभाविक अथवा अनहोनी बात नही है । इसके सिवाय, उन्होंने न्यायविनिश्चयविर एवं अन्तिम भागमे पूज्यपादका देवनन्दी नाम
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से उल्लेख न करके पूज्यपाद नामसे ही उल्लेख किया है', जिससे मालूम होता कि यही नाम उनको अधिक इट था ।
ऐसी स्थिति में यदि वादिराजका अपने द्वितीय पद्यसे देवनन्दि-विषयक अभिप्राय होता तो वे या तो पूरा देवनन्दी नाम देते या उनके 'जैनेन्द्र' व्याकरणका साथमे स्पष्ट नामोल्लेख करते अथवा इस पद्यको रत्नकरण्डके उल्लेख वाले पद्यके बादमे रखते, जिससे समन्तभद्रका स्मरण-विषयक प्रकरण समाप्त होकर दूसरे प्रकरणका प्रारम्भ समझा जाता । जब ऐसा कुछ भी नहीं है तब यही कहना ठीक होगा कि इस पद्यमें 'देव' विशेषरण के द्वारा समन्तभद्रका ही उल्लेख किया गया है। उनका श्रचिन्त्यमहिमासे युक्त होना और उनके द्वारा शब्दों का सिद्ध होना भी कोई श्रमङ्गत नहीं है । वे पूज्यपाद से भी अधिक महान थे, अकलङ्क और विद्यानन्दादिक बड़े-बड़े आचार्योंने पदार्थतत्त्वविषयक स्याद्वाद तीर्थका कलिकालमे भी उनकी महानताका खुला गान किया है, उन्हें सवप्रभावित करने वाला, वीरशासनकी हजारगुणी वृद्धि करने वाला, और 'जैनशासनका प्रणेता' तक लिखा है। उनके असाधारण गुणांक कीतना और महिमाओके वर्णनसि जैन साहित्य भरा हुआ है, जिसका कुछ परिचय पाठक 'मत्माधु- स्मरण - मङ्गलपाठ' मे दिये हुए समन्तभद्रकं स्मरणोंपरसे सहज ही में प्राप्त कर सकते है । समन्तभद्रके एक परिचय-पद्यम मालूम होता है कि वे 'सिद्धसारस्वत' थे- सरस्वती उन्हें सिद्ध थी; वादर्भासह जैसे आचार्य उन्हें 'सरस्वती की स्वच्छन्द विहारभूमि' बतलाते हैं और एक दूसरे ग्रन्थकार समन्तभद्र-द्वारा रचे हुए प्रन्थसमूहरूपी निर्मलकमल-मरोवरमे, जो भावरूप हमसे परिपूर्ण है, सरस्वतीको क्रीडा करती हुई उचित करते हैं। इससे समन्तभद्रकं द्वारा शब्दों१ "विद्यानन्दमनन्तवीर्य सुखद श्रीपूज्यपाद दयापाल सन्मति - मागर वन्दे जिनेन्द्र मुदा" ।
२ श्रनेकान्त वर्ष ७ किरण ३.४ पृ० २६
३ सत्मा धुम्मरणमगलपाट, पृ० ३४, ४६
१ जैसा कि नीचे के कुछ उदाहरणों प्रकट है:-- “देवस्तार्किक चक्रचूडामणिम्यात्म वः श्रयमे" | पृ० ३ "भयो भेदनयावगाहगहन देवस्य यद्वाङमयम्" । "तथा च देवस्यान्यत्र वचन - "व्यवसायात्मक ज्ञान प्रत्यक्ष स्वत एव नः” । प्रस्ताव १ “देवस्य शामगमतीवगभीरमेतत्तात्पर्यत क इव बोद्धमतीव दक्ष" । प्रस्तान २