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किरगा ३]
ग्नकरगड़के कतृत्व-विषयमे मेरा विचार और निर्णय .
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ही ठीक होनेपर मैं उस पद्यके 'देव' पदको समन्त- कोठियाके लेखमे उधृत होचुके हैं। इसके मिवाय, भद्रका ही वाचक मानता हूं और इस तरह तीनों वादिराजके पार्श्वनाथचरितसे ४७ वर्ष पूर्व शक सं० पद्योंको समंतभद्रके स्तुति-विषयक समझता हूँ। अस्तु। ९०० मे लिखे गये चामुण्डरायके त्रिषष्ठिशलाका
अब देखना यह है कि क्या उक्त तीनों पद्योंको महापुराणमें भी 'देव' उपपदके साथ समन्तभद्रका म्वामी ममन्तभद्र के साथ सम्बन्धिन करने अथवा स्मरण किया गया है और उन्हे तत्त्वार्थभाष्यादिका रत्नकरण्डको स्वामी समन्तभद्रकी कृति बतलानमे कर्ता लिखा है। । ऐसी हालतमे प्रो० साहबका काई दसरी बाधा आती है ? जहाँ तक मैने इस समन्तभद्रके साथ 'देव' पदकी अमङ्गतिकी कल्पना विषयपर गभीरताके साथ विचार किया है मुझे उममे करना ठीक नहीं है-वे साहित्यिकोंमे 'देव' विशेषणकोई बाधा प्रतीत नहीं होती। तीनों पद्यांमे क्रमशः के साथ भी मिद्धिको प्रान रह है। नीन विशेषणों स्वामी, देव और योगान्द्र के द्वारा और अब प्रो० माहबका अपने अन्तिम लेखम समन्तभटका स्मरण किया गया है। उक्त क्रममे रकबे यह लिखना तो कुछ भी अर्थ नहीं रखना कि "जी हए तीनों पदोंका अथ निम्न प्रकार है:
उल्लेग्व प्रस्तुत किये गये है उन मबमे 'देव' पद 'उन म्वामी (ममन्तभद्र)का चरित्र किमके लिये
समन्तभद्रके माथ-साथ पाया जाता है । ऐमा कार्ड विम्मयकारक (आश्चर्यजनक ) नही है जिन्होंन
एक भी उल्लेख नही जहाँ केवल 'देव' शब्दस 'दवागम' (आप्तमीमामा) नामके अपने प्रवचन-द्वाग
ममन्तभद्रका अभिप्राय प्रकट किया गया हो।" यह आज भी मवज्ञको प्रदर्शित कर रखा है। वे अचि- वास्तवम काई उत्तर नहीं, इसे केवल उनके लिये त्यमहिमा-युक्त देव (ममन्तभद्र) अपना हिन चाहन ही उत्तर कहा जा सकता है. क्योंकि जब कोई विशेषण वालोके द्वारा सदा वन्दनीय है, जिनक द्वारा (मवन्न किमीक माथ जुड़ा होता है तभी तो वह किमी ही नहीं किन्तु) शब्द भी' भले प्रकार सिद्ध होते है। प्रसङ्गपर मंकतादिक रूपमे अलगमे भी कहा जा वे हा योगीन्द्र (ममन्नभद्र) मजे अर्थोंम त्यागी (त्याग- मकता है, जा विशेपण कभी साथम जुड़ा ही नहीं भावसयक्त अथवा दाता) हा है जिन्होंने मुखार्थी वह न तो अलग कहा जा सकता है और न उमका भव्यममूह के लिये अक्षयसुखका कारणभूत धमेना. वाचक ही हा मकता है। प्रा० माहब मा कोई भी का पिटारा---'रत्नकरण्ड' नामका धर्मशास्त्र-दान
उल्लेख प्रस्तुत नहीं कर सकेंगे जिमम ममन्तभद्रक किया है।'
माथ 'स्वामी' पद जुड़नसे पहले उन्हें केवल 'स्वामी' इम अर्थपरमं स्पष्ट है कि दमरं नथा तीसरे पदके द्वारा उल्लग्विन किया गया हो। अतः मूल बात पद्यम एमा कोई बात नहीं जा म्वामी समन्तभद्रक ममन्तभद्रके माथ 'देव' विशेषगाका पाया जाना है, माथ मङ्गत न बैठती हा। ममन्तभद्रक लिय दव' जमक उलाख प्रस्तुत किये गय है और जिनक विशेषगका प्रयोग काई अनावी अथवा उनक पदस आधारपर द्वितीय पद्यम प्रयुक्त हुए 'देव' विशेषण कोई अधिक चीज नही है । देवागमकी वमुनन्दि-वृति, अथवा उपपदका ममन्तभद्रक माथ सङ्गत कहा जा पं. आशाधरकी मागाग्धामृत-टीका, आचार्य सकता है। प्रो० साहब वादिराजक इमी उल्लेग्यको जयसेनकी ममयसार-टाका, नरेन्द्रमन श्राचायक वैमा क उल्लख ममझ सकते है जिसमें 'देव' सिद्धान्तमार-मग्रह और आप्रमीमांमामूलकी एक शब्दमे ममन्तभद्रका अभिप्राय प्रकट किया गया है। वि० संवत १७की प्रतिको अन्तिम पुष्पिकाम क्योकि वादिराजके सामन अनेक प्राचीन उल्लेखोंक ममन्तदभद्रकं साथ 'देव' पदका खुला प्रयोग पाया जाना है, जिन मब अवतरगा प० दरबारालालजी १ अनेकान्न वर्ग ८ कि० १० ११, १० ४१..." १ मूलमं प्रयुक हुए 'च' शब्द का अर्थ ।
२ अनेकान्त वर्ष कि०प०३: