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________________ १२८ अनेकान्त [ वर्ष ९ उल्लेख है-भले ही वह दमग रत्नकरण्ड कहींपर देवनन्दी पूज्यपादका वाचक नहीं कहा जा सकता, उपलब्ध न हो अथवा उसके अस्तित्वको प्रमाणित न उस वक्त तक जब तक कि यह सिद्ध न कर दिया जाय किया जा सके। और तब इन पद्यों को लेकर जो कि रत्नकरण्ड स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है। विवाद खड़ा किया गया है वही स्थिर नहीं रहता- क्योंकि प्रसिद्ध साधनांक द्वारा कोई भी बात सिद्ध ममान हो जाता है अथवा यों कहिये कि प्रोफेसर नहीं की जा सकती। साहबकी तीसरी आपत्ति निराधार होकर बंकार हो इन्ही सब बातोंको ध्यान रखते हुए, आजसे जाती है। परन्तु प्रोमाहबको दुमरा रनकरण्ड इष्ट काई २३ वर्ष पहले रत्नकरण्डश्रावकाचारकी प्रस्तानही है, तभी जहान प्रचलन रनकरण्डके ही छठं बनाके साथमें दिये हुए स्वामी समन्तभद्रके विस्तृत पद्य 'क्षुत्पिपासा'को प्राप्तमीमामाके विरोधने उपस्थिन परिचय (इतिहास)म जब मैंने 'स्वामिनश्चरित तस्य' किया था, जिसका ऊपर परिहार किया जा चुका है। और 'त्यागी स एव योगीन्द्रो' इन दो पद्याको पाव और इलिय नीमरे पद्यमे उल्लिखित 'रत्नकरण्डक' नाथ रतसं एक साथ उद्धृत किया था तब मैन यदि प्रचलित रनकरण्डश्रावकाचार ही है तो तीनों फुट नोट (पादटिप्पणी)मे यह बतला दिया था कि पदोंको स्वामी ममन्तभद्र के साथ ही मम्बन्धित इनके मध्यमे 'अचिन्त्यमहिमा देवः' नामका एक कहना होगा, जबनक कि कोई स्पष्टबाधा इसके तीसग पद्य मुद्रित प्रतिम और पाया जाता है जो मेरी विरोधमे उपस्थित न की जाय । इसके सिवाय, दूसरी रायम इन दोनों पयोंके बाद होना चाहिय-तभी कोई गति नहीं क्योकि प्रचलित रत्नकरण्डको श्राप्त- वह देवनन्दी आचार्यका वाचक हो सकता है । माथ मीमांसाकार स्वामी समन्तभद्रकृत मानने कोई ही, यह भी प्रकट कर दिया था कि "यदि यह नीसरा बाधा नहीं है, जो बाधा उपस्थित की गई थी उसका पद्य सचमुच ही प्रन्धकी प्राचीन प्रतियोम इन दाना ऊपर दो आपत्तियांका विचार करते हुए भले प्रकार पद्यांक मध्यम ही पाया जाता है और मध्यका ही निरसन किया जा चुका है और यह तीमरी आपत्ति पा है तो यह कहना पड़ेगा कि वादिराजने ममन्तअपने स्वरूपम ही स्थिर न होकर प्रसिद्ध तथा दिग्ध भदको अपना हिन चाहने वालोंके द्वारा वन्दनीय बनी हुई है। और इसलिये प्रो० माहब अभिमत- और अचिन्त्य महिमावाला देव प्रतिपादन किया है। का सिद्ध करनेम असमथ है। जब आदि-अन्तकं साथ ही, यह लिखकर कि उनके द्वारा शब्द भल दानों पद्य स्वामी समन्तभद्रस सम्बन्धित हो तब प्रकार सिद्ध होते है, उनके किसी व्याकरण प्रन्थका मध्यक पद्यको किसी दूसरंक साथ सम्बद्ध नहीं उल्लेख किया है"। अपनी इस दृष्टि और रायके किया जा सकता । उदाहरणके तौरपर कल्पना अनुरूप ही मै 'आचन्त्यमहिमा देवः' पद्यको प्रधानत. काजिये कि रनकरण्डकं उल्लेख वाले तीमर पद्यकं 'देवागम' और 'रत्नकरण्ड'के उल्लेख वाले पदों के स्थानपर स्वामी समन्तभद्र-प्रणीत स्वयभूस्तोत्रके उत्तरवर्ती तीसरा पद्य मानता आरहा है और तदनुउल्लंखको लिये हुए निम्न प्रकारक भाशयका कोई सार ही उसके 'देव' पदका देवनन्दी अर्थ करनमे पद्य है प्रवृत्त हुआ हूं। अतः इन तीनों पद्याँक क्रमविषयमे • स्वयम्भूस्तुतिकर्तारं भस्मव्याधि-विनाशनम् । मेरी दृष्टि और मान्यताको छोडकर किसीको भी विराग-द्वेष-बादादिमनकान्तमत नुमः ।।' मेरे उम अर्थका दुरुपयोग नहीं करना चाहिए जा ऐसे पद्यकी मौजूदगीमे क्या द्वितीय पद्यम समाधितन्त्रकी प्रस्तावना तथा मत्माधु-स्मरण-मङ्गलउल्लिखित 'देव' शब्दको देवनन्दी पूज्यपाद का वाचक पाठम दिया हुआ है। क्योंकि मुद्रितप्रतिका पद्य-क्रम कहा जा सकता है ? यदि नहीं कहा जा सकता नो १ प्रो० साहबने अपने मतकी पटिम उसे पेश करके सचमुच रत्नकरण्ड के उल्लखवाले पद्यकी मौजूदगामे भी उस ही उसका दुरुपयोग किया है ।
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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