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करते हैं, जो कि " त्वयि प्रसादोदयसोत्सवाः स्थिताः" इस वारका स्पष्ट मूलाधार जान पड़ता है :
बहिरन्तरप्युभयथा च, करणमविधाति नार्थकृत् । नाथ ! युगपदखिलं च सदा, त्वमिदं तलाऽऽमलकवद्विवेदिथ ॥१२६।। अत एव ते बुध नुतस्य, चरित-गुराम तोदयम् । न्याय विहितमवधार्य जिने, त्वयि सुप्रसनमनसः स्थिता वयम् ॥१३०॥
इन्ही स्वामी समन्तभद्रको मुख्यतः लक्ष्य करके उक्त द्वात्रिशिकाके अगले दो पद्य' कहे गये जान पड़ते है. जिनमेसे एकमे उनके द्वारा अन्तिमें प्रतिपादित उन दो दो बातोंका उल्लेग्व है जो सर्वज्ञ-विनिश्चयकी सूचक है और दूसरमे उनके प्रथित यशकी मात्राका बड़े गौरवके साथ कीर्तन किया गया है। अतः इस द्वात्रिशिकाके कर्ता सिद्धसेन भी समन्तभद्रके उत्तरवर्ती है। समन्तभद्रके स्वयम्भूस्तात्रका शैलीगत, शब्दगत और अथगत कितना ही साम्य भी इममे पाया जाता है. जिसे अनुमरण कह मकत है और जिसके कारण इस द्वात्रिशिकाको पढ़ते हुए कितनी ही वार इसके पदविन्यामादिपरसे मा भान होता है मानो हम स्वयम्भूम्तात्र पढ़ रहे है। उदाहरणके नौरपर स्वयम्भूस्तोत्रका प्रारम्भ जैसे उपजातिछन्दमें स्वयम्भुवा भूत' शब्दोसे होता है वैसे ही इम द्वात्रिशिकाका प्रारम्भ भी उपजातिछन्दमे 'स्वयम्भुवं भूत' शब्दोसे होता है। स्वयम्भूस्तोत्रमे जिस प्रकार समन्त संहत, गत. उदित, समीक्ष्य, प्रवादिन, अनन्त, अनेकान्त-जैसे कुछ विशेष शब्दोंका, मुने. नाथ, जिन, वीर-जैसे सम्बोधन-पदोका और ५ जितक्षुल्लकवादिशामनः, २ स्वपक्षमौस्थित्यमदावलिप्ता, ३ नैतत्समालीढपदं त्वदन्यः. ४ शेरते प्रजाः, ५ अशेषमाहात्म्यमनारयन्नपि ६ नाऽसमीक्ष्य भवतः प्रवृत्तयः, ७ अचिन्त्यमाहितम, आहन्त्यमचिन्त्यमद्भुत. ८ सहस्राक्षः, स्वद्विपः, १. शशिरूचिशुचिशुक्ललोहितं वपुः. १५ स्थिता वयं-जैसे विशिष्ट पद-वाक्योका प्रयोग पाया जाता है उसी प्रकार पहली द्वात्रिशिकामे भी उक्त शब्दों तथा सम्बोधन पदाक साथ १ प्रपत्रितक्षुल्लकतकशासनैः, २ स्वपक्ष एव प्रतिबद्धमत्मराः. ३ परैग्नालीढपथस्त्वयादितः, ४ जगत् शेग्ने, ५ त्वदीयमाहात्म्यविशेषसंभली भारती. ६ ममीक्ष्यकारिणः, । अचिन्त्यमाहात्म्यं, ८ भूनमहस्रनेत्रं, हत्वत्प्रतिघातनान्मुग्वैः. १० वपुः स्वभावस्थमरक्तशोणितं, ११ स्थिता वयंजैसे विशिष्ट पद-वाक्योका प्रयोग देखा जाता है. जो यथाक्रम स्वयम्भूम्तांत्रगत उक्त पदोके प्रायः समकक्ष है। स्वयम्भूम्नात्रमे जिम तरह जिनस्तवनके माथ जिनशामन-जिनप्रवचन तथा अनकान्तका प्रशंसन एवं महत्व ख्यापन किया गया है और वारजिनेन्द्रक शासनमाहात्म्यको तव जिनशामनविभवः जयति कलावपि गुग्णानुशासनविभवः' जैसे शब्दोद्वाग कलिकालमे भी जयवन्त बतलाया गया है उसी तरह इम द्वात्रिंशिकामे भी जिनस्तुतिके साथ जिनशामनादिका संक्षेपमें कीर्तन किया गया है और वीरभगवानको 'मच्छासनवर्द्धमान' लिग्वा है।
इम प्रथम द्वात्रिशिकाक कर्ता सिद्धर्मन ही यदि अगली चार द्वात्रिंशिकाओंक भी का है जैसा कि पं० सुखलालजीका अनुमान है, ना य पाँची ही द्वात्रिंशिका, जो वीरस्तुतिसे मम्बन्ध रखती हैं और जिन्हें मुख्यतया लक्ष्य करके ही आचार्य हेमचन्द्रने 'क सिद्धसेन
१ "वपुः स्वभावस्थमरक्तशोणित पराऽनुकम्पा सफल च भाषितम् ।
न यस्य सर्वज्ञ विनिश्चयस्त्वयि द्वय करोत्येतटसो न मानुषः ॥१४॥ अलन्धनिधाः प्रसमिदचंतसस्तव प्रशिप्याः प्रथयन्ति यद्यशः । न तावदप्येकसमूहसंहनाः प्रकाशयेयुः परवादिपार्थिवाः ||१५||