SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 503
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -800 प्रन्थोंकी सिद्धसेनीय सन्मतिसूत्रके साथ तुलना करके पं० सुखलालजीने दोनों आचार्योंके इन ग्रन्थों में जिस वस्तुगत पुष्कल साम्य'की सूचना सन्मतिकी प्रस्तावना (पृ०६६)में की है उसके लिये सन्मतिसूत्रको अधिकांशमें सामन्तभद्रीय प्रन्थोंके प्रभावादिका आभारी समझना चाहिये। अनेकान्त-शासनके जिस स्वरूप-प्रदर्शन एवं गौरव-ख्यापनकी ओर समन्तभद्रका प्रधान लक्ष्य रहा है उसीको सिद्धसेनने भी अपने ढङ्गसे अपनाया है। साथ ही सामान्य-विशेष-मातृक नयोंके मर्वथा-श्रसर्वथा, सापेक्ष-निरपेक्ष और सम्यक-मिथ्यादि-स्वरूपविषयक समन्तभद्रके मौलिक निर्देशोंको भी आत्मसात किया है। सन्मतिका कोई कोई कथन समन्तभद्र के कथनसे कुछ मतभेद अथवा उसमें कुछ वृद्धि या विशेष आयोजनको भी साथमें लिये हुए जान पड़ता है, जिसका एक नमूना इस प्रकार है: दव्वं खित्त कालं भावं पज्जाय-देम-संजोगे । भेदं च पडुच्च समा भावाणं पएणवणपज्जा ॥३-६०॥ इस गाथामे बतलाया है कि 'पदार्थोंकी प्ररूपणा द्रव्य, क्षेत्र, काल. भाव, पर्याय. देश मयोग और भेदको आश्रित करके ठीक होती है;' जब कि समन्तभद्रने “सदेव सर्व को नेच्छेन स्वरूपादिचतुष्टयात्" जैसे वाक्योके द्वारा द्रव्य. क्षेत्र, काल और भाव इस चतुष्टयको ही पदार्थप्ररूपणका मुख्य साधन बतलाया है। इससे यह साफ जाना जाता है कि समन्तभद्रके उक्त चतुष्टयमे मिद्धसेनने बादको एक दूसरे चतुष्टयकी और वृद्धि की है. जिसका पहलसे पूक्के चतुष्टयमें ही अन्तर्भाव था। रही द्वात्रिंशिकाओके कर्ता मिद्धसेनकी बात. पहली द्वात्रिशिकामे क उल्लेख-वाक्य निम्न प्रकारसे पाया जाता है, जो इस विषयमें अपना खास महत्व रखता है: य एप पड्जीव-निकाय-विस्तरः परैरनालीढपथम्त्वयोदितः । अनेन सयज्ञ-परीक्षण-क्षमास्त्वयि प्रसादादयसोत्सवाः स्थिताः ॥१३॥ इसमें बतलाया है कि हे वीरजिन ' यह जो पट् प्रकारके जीवोंके निकायों (समूहों) का विस्तार है और जिसका मार्ग दूसरोके अनुभवमे नहीं आया वह आपके द्वारा उदित हुआ -बतलाया गया अथवा प्रकाशमे लाया गया है। इसीसे जो मर्वज्ञकी परीक्षा करने में समर्थ है वे (श्रापको सर्वज्ञ जानकर) प्रसन्नताके उदयरुप उत्सवके साथ आपमें स्थित हुए है-बड़े प्रमन्नचित्तसे आपके आश्रयम प्राप्त हुए और आपके भक्त बने है। वे समर्थ-सर्वज्ञ-परीक्षक कौन है जिनका यहाँ उल्लेख है और जो आप्तप्रभु वीरजिनेन्द्रकी मर्वज्ञरूपमे परीक्षा करनेके अनन्तर उनके सुदृढ़ भक्त बने है ? वे है, स्वामी ममन्तभद्र. जिन्होने श्रातमीमांसा द्वारा सबसे पहले मर्वज्ञकी परीक्षा' की है. जो परीक्षाके अनन्तर वीरकी स्तुतिरूपमें 'युक्त्यनुशामन' म्तोत्रके रचने में प्रवृत्त हा है। और जो स्वयम्भू स्तोत्रके निम्न पद्योमें सर्वज्ञका उल्लेख करते हुए उसमें अपनी स्थिति एवं भक्तिको स्वयि सुप्रसन्नमनमः स्थिता वयम्" इस वाक्यके द्वारा स्वयं व्यक्त १ श्रकलङ्कदेवने भी 'अष्टशती' भाध्यमे श्रासमीमांसाको "सर्वज्ञविशेषपरीक्षा" लिखा है और वादि राजसूरिने पार्श्वनाथचरितमें यह प्रतिपादित किया है कि 'उमी देवागम(श्राप्तमीमांसा)के द्वारा स्वामी (ममन्तभद्र)ने अाज भो सर्वशको प्रदर्शित कर रक्खा है: "स्वामिनश्चरित तस्य कस्य न विस्मयावहम् । देवागमेन सर्वज्ञो येनाऽद्यापि प्रदर्श्यते ।।" २ युक्तयनुशासनकी प्रथमकारिकामें प्रयुक्त हुए 'अद्य पदका अर्थ श्रीविद्यानन्दने टीकामें "अस्मिन् काले परीक्षाऽवसानसमये" दिया है और उसके द्वारा प्राप्तमीमांसाके बाद युक्तयनुशासनकी रचनाको सूचित किया है। २४२: तथा niu ... na ...
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy