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________________ सrmirewort । हर तमा 'सर्वार्थसिद्धिपर समन्तभद्रका प्रभाव' नामक लेखमें स्पष्ट करके बतलाया जा चुका है। समन्तभद्रके रखकरण्ड'का 'आप्नोपशमनुलंध्यम' नामका शाखलक्षणवाला पूरा पद्य न्यायावतारमें उद्धृत है, जिसको रत्नकरएडमें स्वाभाविकी और न्यायावतारमें उद्धरण-जैसी स्थितिको खूब खोलकर अनेक युक्तियोके साथ अन्यत्र दशाया जा चुका है। उसके प्रक्षिप्त होनेकी कल्पना-जैमी बात भी अब नहीं रही; पाकि एक ता न्यायावतारका समय अधिक दूरका न रहकर टीकाकार सिद्धर्षिक निकट पहुँच गया है दूसरे उममें अन्य कुल वाक्प भी समर्थनादिके रूपमें उद्धृत पाये जाते हैं। जैसे “साध्याविनाभुवो हेतोः" जैसे वाक्य हेतुका लक्षण श्राजानेपर भी "अन्यथानुपपन्नत्व तोर्लक्षणमीरितम” इस वाक्यमे उन पात्रस्वामीके हेतुलक्षणको उद्धृत किया गया है जो ममन्तभद्रके देवागमसे प्रभावित होकर जैनधर्ममें दीक्षित हुए थे। इसी तरह "दृष्टेष्टाव्याहताद्वाक्यात" इत्यादि पाठवें पद्यमें शाब्द (आगम) प्रमाणका लक्षण आजानेपर भी अगले पद्यमे समन्तभद्रका "आप्तोपशमनुल्लध्यमदृष्टेष्टविरोधकम" इत्यादि शास्त्रका लक्षण ममर्थनादिके रूपमे उद्धृत हुआ समझना चाहिये । इसके सिवाय, न्यायावतारपर ममन्तभद्रके देवागम (आप्तमीमांसा)का भी स्पष्ट प्रभाव है; जैसा कि दोनो प्रन्योंमें प्रमाणके अनन्तर पाय जानेवाले निम्न वाक्योंकी तुलनापरसे जाना जाता है: “उपेक्षा फलमाऽऽद्यस्य शेषम्याऽऽदान-हान-धीः । पूर्वा(वै) वाज्ञान नाशो वा सर्वम्याऽस्य स्वगोचरे ॥१०॥" (देवागम) "प्रमाणम्य फलं साक्षादज्ञान विनिवर्तनम् । कंवलम्य मुखोपेक्ष' शेषम्याऽऽदान-हान धीः॥२८॥" (न्यायावतार) ऐसी स्थितिमे व्याकरणादिके कर्मा पूज्यपाद और न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेन दानो ही स्वामी समन्तभद्र के उत्तरवर्ती हैं. इसमे मंदेह के लिये कोई स्थान नही है। सन्मतिसूत्रक कर्ता मिद्धमेन चूंकि नियुक्तिकार एवं नमित्तिक भद्रबाहके बाद हुए हैं- उन्होंने भद्रबाहु के द्वारा पुरस्कृत उपयोग-क्रमवादका ग्वएडन किया है और इन भद्रबाहका समय विक्रमकी छठी शताब्दीका प्रायः तृतीय चरण पाया जाता है. यही समय मन्मतिकार सिद्धसेनके समयकी पूर्वसीमा है. जैमा कि ऊपर सिद्ध किया जा चुका है। पूज्यपाद इस समयसे पहल गङ्गवंशी राजा अविनीन (ई. मन ४३०-४८) तथा उसके उत्तराधिकारी दुर्विनीतके समयमे हए है और उनके एक शिप्य वनन्दीने विक्रम संवत ५२६मे द्राविडसंघकी स्थापना की है जिमका उल्लेग्व देवसेनरिक दर्शनमार (वि० सं० ६६०) ग्रन्थमे मिलता है। श्रन: मन्मतिकार मिद्धसेन पूज्यपादक उत्तरवर्ती हैं. पूज्यपादक उत्तरवर्ती होनेसे समन्तभद्रक भी उत्तरवर्ती है सा मिद्ध होता है। और इमलिय समन्तभद्रकं स्वयम्भूस्तोत्र तथा आतमीमामा (देवागम) नामक दो पाठक' शीर्षक लेख पृ० १८-२३, अथवा “दि एनल्म ऑफ दि भाय हारकर रिसर्च इन्स्टिटय ट पूना वाल्यूम १५ पार्ट १-२में प्रकाशित Salmantalbhadra', diet and Dr K. B. Pathak पृ० ८१-८८ । १ देवी, अनेकान्त वर्ष ५, किरण १०-११ पृ. ३४६-३५२ । २ देखा, 'स्वामी समन्तभद्र' (इतिहास) पृ० १२६-१३१ तथा अनेकान्त वर्ष कि. १से ४में प्रकाशित 'रनकरण्डके कतृत्वविषयम मेरा विचार र निर्णय' नामक लेख पृ० १०२-१०४ । ३ यहां 'उपेक्षा के साथ सुखकी वृद्धि का गई है, जिसका अज्ञाननिवृत्ति तथा उपेक्षा(रागादिककी निवृत्तिरूप अनासक्ति)के साथ अविनाभावी सम्बन्ध है। ४ "सिरिपुजपादसीसो दाविडमघस्स कारगी दुद्दा । णामण वजणदी पाहुडवेदी महासत्तो ॥२४॥ पचसए छन्बीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । दक्षिणमहुराजादो दाविडसघो महामाहो ॥२"
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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