________________
४५० ]
अनकान्त
ऐसी हालतमें युगपत्वादकी सर्वप्रथम उत्पत्ति उमास्वातिसे बतलाना किसी तरह भी युक्तियुक्त नहीं कहा जा सकता, जैनवाङ्मयमें इसकी अविकल धारा अतिप्राचीन कालसे चली आई है। यह दूसरी बात है कि क्रम तथा अभेदकी धाराएँ भी उसमें कुछ बादको शामिल होगई हैं; परन्तु विकास-क्रम युगपत्वादसे ही प्रारम्भ होता है जिसकी सूचना विशेषणवतीकी उक्त गाथाओं (केई भणंति जुगवं' इत्यादि)से भी मिलती है। दिगम्बराचार्य श्रीकुन्दकुन्द, समन्तभद्र और पूज्यपादके ग्रन्थोमें क्रमवाद तथा अभेदवादका कोई ऊहापोह अथवा खण्डन न होना पं० सुखलालजीको कुछ अखरा है; परन्तु इसमें अखरनेकी कोई बात नहीं है। जब इन आचार्योके सामने य दोनो वाद आए ही नहीं तब वे इन वादोका उहापोह अथवा खण्डनादिक कैसे कर सकते थे ? अकलङ्कके सामने जब ये वाद आए तब उन्होंने उनका खण्डन किया ही है, चुनॉचे पं० सुखलालजी स्वयं ज्ञानबिन्दुके परिचयमे यह स्वीकार करते हैं कि “सा खण्डन हम सबसे पहले अकलङ्ककी कृतियाम पात हैं।" और इमलिय उनसे पूर्वकी-कुन्दकुन्द. समन्तभद्र तथा पूज्यपादकी-कृतियोमे उन वादाकी कोई चर्चाका न होना इस बातको और भी साफ तौरपर सूचित करता है कि इन दोनों वादोकी प्रादुभूति उनके समयके बाद हुई है। सिद्धसेनके सामने ये दोनों वाद थे-दोनोंकी चर्चा सन्मतिमे की गई है-अतः य सिद्धसेन पूज्यपादके पूर्ववर्ती नहीं हो सकते। पूज्यपादने जिन मिद्धसेनका अपने व्याकरणमे नामोल्लेख किया है वे कोई दूसरे ही सिद्धसेन होने चाहिये।
यहॉपर एक खास बात नोट किये जानेके योग्य है और वह यह कि पं० सुखलालजी सिद्धसेनका पूज्यपादसे पूर्ववर्ती सिद्ध करने के लिय पूज्यपाीय जैनेन्द्र व्याकरणका उक्त सूत्र ती उपस्थित करते हैं परन्तु उसी व्याकरणके दूसर समकक्ष सूत्र "चतुष्टयं समन्तभद्रस्य” को देखत हुए भी अनदेखा कर जाते है-उसक प्रति गजनिर्मालन-जैसा व्यवहार करत है-और ज्ञानबिन्दुकी परिचयात्मक प्रस्तावना (पृ०५५)मे विना किसी हेतुके ही यहाँ तक लिखनेका साहस करते हैं कि 'पूज्यपादके उत्तरवर्ती दिगम्बराचार्य समन्तभद्र"ने अमुक उल्लेख किया ! साथ ही, इम बातको भी भुला जात है कि मन्मतिकी प्रस्तावनामें वे स्वयं पूज्यपादको समन्तभद्रका उत्तरवर्ती बतला आए है और यह लिख आए है कि 'स्तुतिकाररूपसे प्रसिद्ध इन दाना जैनाचार्याका उल्लेख पूज्यपादने अपने व्याकरणके उक्त सूत्रांम किया है. उनका कोई भी प्रकारका प्रभाव पूज्यपादकी कृतियापर होना चाहिये ।' मालूम नहीं फिर उनके इस साहमिक कृत्यका क्या रहस्य है। और किस अभिनिवेशक वशवर्ती होकर उन्होने अब यो ही चलती कलमसे समन्तभद्रका पूज्यपादके उत्तरवर्ती कह डाला है । इसे अथवा इसके औचित्यका वे ही स्वयं समझ सकत है। दूसरे विद्वान तो इसमे कोई औचित्य एवं न्याय नहीं देखत कि एक ही व्याकरण ग्रन्थमे उल्लखित दो विद्वानोमेसे एकको उस ग्रन्थकारके पूर्ववर्ती और दुमरको उत्तरवर्ती बतलाया जाय और वह.भी विना किसी युक्ति के । इसमे सन्देह नहीं कि पण्डित सुखलालजाकी बहुत पहलेसे यह धारणा बनी हुई है कि सिद्धसेन समन्तभद्रके पूर्ववर्ती है
और वे जैसे तैसे उसे प्रकट करने के लिय काई भी अवसर चूकत नहीं है। हो सकता है कि उमाकी धुनमें उनसे यह कार्य बन गया हो, जो उस प्रकटीकरणका ही एक प्रकार है, अन्यथा वैमा कहनेके लिये कोई भी युक्तियुक्त कारण नहीं है।
पूज्यपाद समन्तभद्रके पूर्ववर्ती नहीं किन्तु उत्तरवर्ती हैं, यह बात जैनेन्द्रव्याकरणके उक्त "चतुष्टयं समन्तभद्रस्य" सूत्रसे ही नही किन्तु श्रवणबेलगोलके शिलालेखों आदिसे भी भले प्रकार जानी जाती है.' । पूज्यपादकी 'सर्वार्थसिद्धि' पर समन्तभद्रका स्पष्ट प्रभाव है, इसे १ देखो, श्रवणबेल्गोल-शिलालेख नं० ४० (६४), १०८ (२५); 'स्वामी समन्तभद्र' (इतिहास)पृ० १४१...१४.३ः तथा 'जैन जगत' वर्ष ६ अङ्क १५-१६में प्रकाशित 'समन्तभद्रका समय और डा. के. बी.