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[ वर्ष ९.
बाद होना और भी पुष्ट होता है। ऐसी हालतमें न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेनको असङ्गके बाद और धर्मकीर्तिके पूर्वका बतलाना निरापद नहीं है-उसमें अनेक विघ्न-बाधाएँ उपस्थित होती हैं । फलतः न्यायावतार धर्मकीर्ति और पात्रस्वामीके बादकी रचना होनेसे उन सिद्धसेनाचार्यकी कृति नहीं हो सकता जो सन्मतिसूत्रके कर्ता । जिन अन्य विद्वानोंने उसे अधिक प्राचीनरूपमें उल्लेखित किया है वह मात्र द्वात्रिंशिकाओं, सन्मति और न्यायावतारको एक ही सिद्धसेनकी कृतियाँ मानकर चलनेका फल है ।
कान्त
इस तरह यहाँ तक के इस सब विवेचनपरसे स्पष्ट है कि सिद्धसेनके नामपर जो भी ग्रन्थ चढ़े हुए हैं उनमेंसे सन्मतिसूत्रको छोड़कर दूसरा कोई भी ग्रन्थ सुनिश्चितरूपमें सन्मतिकारकी कृति नहीं कहा जा सकता - अकेला सन्मतिसूत्र ही असपत्नभावसे अभीतक उनकी कृतिरूपमें स्थित है । कलको अविरोधिनी द्वात्रिंशिकाओमेंसे यदि किसी द्वात्रिंशिकाका उनकी कृतिरूपमें सुनिश्चय हो गया तो वह भी सन्मति के साथ शामिल हो सकेगी ।
(ख) सिद्धसेनका समयादिक
अब देखना यह है कि प्रस्तुत ग्रन्थ 'सम्मति' के कर्ता सिद्धसेनाचार्य कब हुए है और किस समय अथवा समय के लगभग उन्होंने इस ग्रन्थकी रचना की है। ग्रन्थ में निर्माणकालका कोई उल्लेख और किसी प्रशस्तिका आयोजन न होनेके कारण दूसरे साधनोंपरसे ही इस विषयको जाना जा सकता है और वे दूसरे साधन हैं प्रन्थका अन्तःपरीक्षण - उसके सन्दर्भ - साहित्यकी जांच द्वारा बाझ प्रभाव एवं उल्ल खादिका विश्लेपण, उसके वाक्यो तथा उसमे चर्चित खास विषयोका अन्यत्र उल्लेख आलोचन - प्रत्यालोचन, स्वीकार - अस्वीकार अथवा खण्डनमण्डनादिक और साथ ही सिद्धसेनके व्यक्तित्व विषयक महत्व के प्राचीन उद्गार | इन्हीं सब साधनो तथा दूसरे विद्वानोके इस दिशामे किये गये प्रयत्नोको लेकर मैंने इस विषय में जो कुछ अनुसंधान एवं निर्णय किया है उसे ही यहॉपर प्रकट किया जाता है:
(१) सन्मति के कर्ता सिद्धसेन केवलीके ज्ञान दर्शनोपयोग-विषयमें अभेदवादके पुरस्कर्ता हैं यह बात पहले (पिछले प्रकरण में) बतलाई जा चुकी है। उनके इस अभेदवादका खण्डन इधर दिगम्बर सम्प्रदायमें सर्वप्रथम कलंकदेवके राजवार्त्तिकभाष्यमें' और उधर श्वेताम्बर सम्प्रदायमें सर्वप्रथम जिनभद्रक्षमाश्रमणके विशेषावश्यकभाष्य तथा विशेषणवती नामके प्रन्थोमें मिलता है। साथ ही तृतीय काण्डकी 'रणत्थि पुढवीविसिट्टो' और 'दोहिं वि एहिं णीयं' नामकी दो गाथाएँ (५२, ४६) विशेषावश्यकभाष्यमें क्रमशः गा० न० २१०४.२१६५ पर उद्धृत पाई जाती हैं। इसके सिवाय, विशेषावश्यकभाष्यकी स्वोपज्ञटीकामे ' 'गामाइतियं दवट्ठियरस' इत्यादि गाथा ७५ की व्याख्या करते हुए ग्रन्थकारने स्वयं " द्रव्यास्तिकनयावलम्बिनौ संग्रह - व्यवहारौ ऋजुसूत्रादयस्तु पर्यायनयमतानुसारिणः आचार्यसिद्धसेनाऽभिप्रायात्” इस वाक्यके द्वारा सिद्धसेनाचार्यका नामोल्लेखपूर्वक उनके सन्मतिसूत्र-गत मतका उल्लेख किया है, ऐसा मुनि पुण्यविजयजीके मंगसिर सुदि १० मी सं० २००५के एक पत्रसे मालूम हुआ है। दोनों
१ राजवा० भ ० अ० ६ सू० १० वा० १४-१६ |
२ विशेषा० भा० गा० ३०८६ से (कोट्याचार्यकी वृत्तिमें गा० ३७२६से) तथा विशेषणवती गा० १८४ से २८०; सन्मति प्रस्तावना पृ० ७५ |
३ उद्धरण विषयक विशेष ऊहापोहके लिये देखो, सन्मति प्रस्तावना पृ० ६८, ६६ ॥
४ इस टीका के अस्तित्वका पता हालमें मुनि पुण्यविजयजीको चला है। देखो, भी आत्मानन्दप्रकाश