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________________ सन्नाभरासाक L००१ ग्रन्थकार विक्रमकी ७वीं शताब्दीके प्रायः उत्तरार्धके विद्वान् हैं। अकलंकदेवका विक्रम सं०७०० में बौद्धोंके साथ महान वाद हुआ है जिसका उल्लेख पिछले एक फुटनोटमें अकलंकचरितके आधारपर किया जा चुका है, और जिनभद्रक्षमाश्रमणने अपना विशेषावश्यकभाष्य शक सं०५३१ अर्थात् वि० सं०६६६ में बनाकर समाप्त किया है। प्रन्थका यह रचनाकाल उन्होंने स्वयं ही ग्रन्थके अन्तमें दिया है, जिसका पता श्री जिनविजयजीको जैसलमेर भएडारकी एक अतिप्राचीन प्रतिका देखते हुए चला है। ऐसी हालतमे सन्मतिकार सिद्धसेनका समय विक्रम सं०६६६से पूर्वका सुनिश्चित है परन्तु वह पूर्वका समय कौन-सा है? –कहाँ तक उसकी कमसे कम सीमा है -यही आगे विचारणीय है। (२) सन्मतिसूत्रमें उपयोग-द्वयके क्रमवादका जोरोके साथ खण्डन किया गया है, यह बात भी पहले पतलाई जा चुकी तथा मूल ग्रन्थके कुछ वाक्योंको उद्धृत करके दर्शाई जाचुकी है। उस क्रमवादका पुरस्कर्ता कौन है और उसका समय क्या है ? यह बात यहाँ खास तौरसे जान लेनेकी है। हरिभद्रसूरिने नन्दिवृत्तिमे तथा अभयदेवसूरिने सन्मतिकी टीकामे यद्यपि जिनभद्रक्षमाश्रमणको क्रमवादके पुरस्कर्तारूपमे उल्लेखित किया है परन्तु वह ठीक नहीं है; क्योंकि वे तो मन्मतिकारके उत्तरवर्ती है. जबकि होना चाहिये कोई पूर्ववर्ती। यह दूसरी बात है कि उन्होने क्रमवादका जोरोके साथ समर्थन और व्यवस्थित रूपसे स्थापन किया है, संभवतः इसीसे उनका उस वादका पुरस्कर्ता समझ लिया गया जान पड़ता है। अन्यथा, क्षमाश्रमणजी स्वयं अपने निम्न वाक्यो द्वारा यह सूचित कर रहे हैं कि उनसे पहले युगपद्वाद, क्रमवाद तथा अभेदवादके पुरस्कर्ता हो चुके है: "केई भणंति जुगवं जाणइ पासइ य केवली णियमा । अण्णे एगंतरियं इच्छंति सुअोवएसेणं ॥ १८४ ॥ भएणे ण चेव वीसुदंसणमिच्छति जिणवरिंदस्स । जं चि य केवलणाग तं चि य से दरिसण विति ॥ १८५॥-विशेषणवती ___पं० सुखलालजी आदिने भो कथन-विरोधको महमूम करते हए प्रस्तावनामें यह स्वीकार किया है कि जिनभद्र और मिद्धसेनमे पहले कमवादके पुरस्कर्तारूपमें कोई विद्वान् हाने ही चाहिये जिनके पक्षका सन्मतिमें खण्डन किया गया है। परन्तु उनका कोई नाम उपस्थित नहीं किया। जहाँ तक मुझे मालूम है वे विद्वान नियुक्तिकार भद्रबाह होने चाहिय. जिन्होंने आवश्यकनियुक्तिके निम्न वाक्य-द्वारा क्रमवादकी प्रतिष्ठा की है णामि दसणंमिश्र इत्तो एगयरयंमि उवजुत्ता । सव्वस्स केवलिम्सा(स्स वि) जुगवं दो णस्थि उवोगा ॥९७८ ॥ ये नियुक्तिकार भद्रबाहु श्रुतकवली न होकर द्वितीय भद्रबाहु हैं जो अष्टाङ्गनिमिस तथा मन्त्र-विद्याके पारगामी होनेके कारण 'नैमित्तिक'' कहे जाते है, जिनकी कृतियों में १ पावयणी१ धम्मकहीर वाई३ णमित्तिश्रो४ तवस्सी५ य । विजा६ सिद्धो य कई८ अव पभावगा भणिया ॥१॥ अजरक्ख१ नदिसेणोर सिरिगुत्तविणेय३ भद्दबाहू४ य । खवग५ऽजखवुड६ समिया७ दिवायरो वा इदाऽऽहरणा ||२|| -'छेदसूत्रकार अने नियुक्तिकार' लेखमें उद्धृत ।
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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