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• किरण ११)
सन्मात-सडसनाक
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जायगा। ऐसी हालतमें जो सिद्धसेन सन्मतिके कर्ता है वे ही न्यायावतारके कर्ता नहीं हो सकते-समयकी दृष्टिसे दोनों प्रन्थोंके कर्ता एक-दूसरेसे भिन्न होने चाहिये।
इस विषयमें पं० सुखलालजी आदिका यह कहना है कि 'प्रो० टुची (Tousi) ने दिग्नागसे पूर्ववर्ती बौद्धन्यायके ऊपर जो एक निबन्ध रॉयल एशियाटिक सोसाइटीके जुलाई सन् १९२९के जर्नलमें प्रकाशित कराया है उसमें बौद्ध-संस्कृत-प्रन्थोंके चीनी तथा तिब्बती अनुवादके आधारपर यह प्रकट किया है कि 'योगाचार्य भूमिशाख और प्रकरणार्यवाचा नामके ग्रन्थोमें प्रत्यक्षकी जो व्याख्या दी है उसके अनुसार प्रत्यक्षको अपरोक्ष, कल्पनापोढ, निर्विकल्प और भूल-विनाका अभ्रान्त अथवा अव्यभिचारी होना चाहिये । साथ ही अभ्रान्त तथा अव्यभिचारी शब्दोंपर नोट देते हुए बतलाया है कि ये दानों पर्यायशब्द है, और चीनी तथा तिब्बती भाषाके जो शब्द अनुवादोंमें प्रयुक्त हैं उनका अनुवाद अभ्रान्त तथा अव्यभिचारी दोनो प्रकारसे हो सकता है । और फिर स्वयं अभ्रान्त' शब्दको ही स्वीकार करते हुए यह अनुमान लगाया है कि धर्मकीर्तिने प्रत्यक्षकी व्याख्यामे 'अभ्रान्त' शब्दकी जो वृद्धि की है वह उनके द्वारा की गई कोई नई वृद्धि नहीं है बल्कि सौत्रान्तिकांकी पुरानी व्याख्याको स्वीकार करके उन्होंने दिग्नागकी व्याख्यामें इस प्रकारसं सुधार किया है। योगाचार्य-भूमिशास्त्र असङ्गके गुरु मैत्रयकी कृति है. असङ्ग (मैत्रेय ?)का समय ईसाकी चौथी शताब्दीका मध्यकाल है, इससे प्रत्यक्षके लक्षणमें 'अभ्रान्त' शब्दका प्रयोग तथा अभ्रान्तपनाका विचार विक्रमकी पाँचवी शताब्दीके पहले भले प्रकार ज्ञात था अर्थात् यह (अभ्रान्त) शब्द सुप्रसिद्ध था । अतः सिद्धसेनदिवाकरके न्यायावतारमें प्रयुक्त हुए मात्र 'अभ्रान्त' पदपरसे उस धर्मकीर्तिके बादका बतलाना जरूरी नहीं। उसके कता सिद्धसेनको प्रसङ्गके बाद और धर्मर्कातिके पहले माननेमे कोई प्रकारका अन्तराय (विघ्न-बाधा) नहीं है।'
इस कथनमें प्रो-टुचीके कथनको लेकर जो कुछ फलित किया गया है वह ठीक नहीं है; क्योकि प्रथम तो प्रोफेसर महाशय अपने कथनमे स्वयं भ्रान्त है-वे निश्चयपूर्वक यह नहीं कह रहे हैं कि उक्त दोनो मूल संस्कृत ग्रन्थोमे प्रत्यक्षका जो व्याख्या दी अथवा उसके लक्षणका जो निर्देश किया है उसमे 'अभ्रान्त' पदका प्रयोग पाया ही जाता है बल्कि साफ तौरपर यह सूचित कर रहे हैं कि मूलग्रन्थ उनके सामने नहीं, चीनी तथा तिब्बती अनुवाद ही सामने है और उनमे जिन शब्दाका प्रयोग हुआ है उनका अर्थ अभ्रान्त तथा अव्यभिचारि दोनो रूपसे हो सकता है। तीसरा भी कोई अर्थ अथवा संस्कृत शब्द उनका वाच्य हो सकता हो तो उसका निषेध भी नही किया। दूसरे, उक्त स्थितिमे उन्होने अपने प्रयोजनके लिये जो अभ्रान्त पद स्वीकार किया है वह उनकी रुचिकी बात है न कि मूलमें अभ्रान्त-पदके प्रयोगकी कोई गारंटी है और इसलिये उसपरसे निश्चितरूपमे यह फलित कर लेना कि 'विक्रमकी पॉचवी शताब्दीक पहले प्रत्यक्षके लक्षणमें अभ्रान्त' पदका प्रयोग भले प्रकार ज्ञात तथा सुप्रसिद्ध था' फलितार्थ तथा कथनका अतिरेक है और किसी तरह भी समुचित नहीं कहा जा सकता । तोसरे, उन मूल संस्कृत प्रन्थोंमे यदि 'अव्यभिचारि' पदका ही प्रयोग हो तब भी उसके स्थानपर धमकीतिने अभ्रान्त' पदकी जो नई योजना का है वह उसीकी योजना कहलाएगी और न्यायावतारमें उसका अनुसरण होनेसे उसके कर्ता सिद्धसेन धर्मकीतिके बादके ही विद्वान् ठहरेंगे। चौथे, पात्रकेसरीस्वामीके हेतु लक्षणका जो उद्धरण न्यायावतारमें पाया जाता है और जिसका परिहार नहीं किया जा सकता उससे सिद्धसेनका धर्मकीर्तिके १ देखो, सन्मति के गुजराती संस्करणकी प्रस्तावना पृ. ४१, ४२, और अग्रेजी संस्करणकी
प्रस्तावना पृ० १२-१४ ।