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________________ कर्म और उसका कार्य (लेखक-पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री) कर्मकी मर्यादा पर ग्लानि होती है । धन-सम्पत्तिको देखकर लोभ कर्मका मोटा काम जीवको संसारमं रोक रखना है। होता है और लोभवश उमके अर्जन करने. छीन लेने - परावर्तन संसारका दसरा नाम है। व्य. क्षेत्र. या चुरा लेनेकी भावना होती है। ठोकर लगनेपर काल. भव और भावके भेदसे वह पाँच प्रकारका है। दुःख होता है और मालाका संयोग होनेपर सुख । कर्मक कारण ही जीव इन पाँच प्रकारके परावर्तनामें इस लिय यह कहा जा सकता है कि केवल कर्म ही. घूमना फिरता है। चौरासी लाख योनियों और उनमे आत्माकी विविध परिणतिके होने में निमित्त नहीं है रहते हुए जीवकी जो विविध अवस्थाएँ होती है उनका किन्तु अन्य सामग्री भी उसका निमित्त है अतः कर्ममुख्य कारण कर्म है। स्वामी समन्तभद्र प्राप्तमीमांमा- का स्थान बाह्य सामग्रीको मिलना चाहिये। में कर्मक कार्यका निर्देश करते हुए लिग्बते है परन्तु विचार करनेपर यह युक्त प्रतीत नहीं होता, 'कामादिप्रभवश्चित्रः कर्मबन्धानुरूपतः' । क्योंकि अन्तरङ्गमे वैसी योग्यताके अभावमे बाह्य ‘जीवकी काम-क्रोध-श्रादिरूप विविध अवस्थाएँ अपने सामग्री कुछ भी नहीं कर सकती है। जिस योगीक अपने कर्मके अनुरूप होती है।' राग-भाव नष्ट होगया है उसके सामने प्रबल रागकी बात यह है कि मुक्त दशामे जीवकी प्रतिममय मामग्री उपस्थित होनेपर भी राग पैदा नहीं होता। जो म्वाभाविक परिणति होती है उसका अलग अलग इससे मालूम पड़ता है कि अन्तरङ्गमे योग्यताके बिना निमित्तकारण नहीं है. नही तो उसमें एकरूपता नही बाह्य सामग्रीका काई मूल्य नहीं है। यपि कमके बन सकती। किन्तु संसारदशामें वह परिणति प्रति विषयमे भी एमा ही कहा जा सकता है पर कर्म और समय जुदी जुदी होती रहती है इमलिय उमके जदे बाह्य सामग्री इनमे मौलिक अन्तर है। जुद निमित्तकारण माने गय है। ये निमित्त संस्कार ___कम वैसी योग्यताका सूचक है पर बाह्य सामग्रीरूपमे आत्मासे सम्बद्ध होते रहते है और तदनुकूल का वेमी योग्यनासे कोई मम्बन्ध नहीं । कभी वैमी परिणतिके पदा करनेमे महायता प्रदान करते है। योग्यताके मद्भावमे भी बाह्य मामग्री नहीं मिलती जीवकी अशुद्धता और शुद्धता इन निमित्तोंके मद्राव और कभी उसके प्रभाव भी बाह्य सामग्रीका संयोग और अमद्भावपर आधारित है। जब तक इन निमित्ता- देखा जाता है। किन्तु कमक विषय में एसी बात नहीं का एकक्षेत्रावगाहसंश्नशम्प मम्बन्ध रहता है तब है। उसका मम्बन्ध तभी तक आत्मासे रहता है जबतक अशुद्धता बनी रहती है और इनका सम्बन्ध तक उममें तदनुकूल याग्यता पाई जाती है। अतः छूटते ही जीव शुद्ध दशाको प्राप्त होजाता है। जैन कमका स्थान बाह्य सामग्री नहीं ले सकती। फिर भी दर्शनमें इन्ही निमित्तोको 'कर्म' शब्दसे पुकाग गया है। अन्तरङ्गी योग्यताकं रहते हुए बाह्य सामग्री के मिलने ऐसा भी होता है कि जिस ममय जैमी बाह्य पर न्यूनाधिक प्रमाण कार्य तो होता ही है इस लिय सामग्री मिलती है उम समय उमके अनुकूल अशुद्ध निमित्तांकी परिगणनामें बाह्य मामग्रीकी भी गिनती आत्माकी परिणनि होती है। सुन्दर सुस्वरूप श्रीक होजाती है। पर यह परम्परानिमिस है इसलिये इसकी मिलनेपर गग होता है। जुगुप्माकी सामग्री मिलने- परिगणना नोकर्मके स्थानमें की गई है।
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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