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अनेकान्त
[वर्ष ६
इतने विवेचनमे कमकी कार्य-मर्यादाका पता लग जिनसे विविध प्रकारके शरीर. वचन, मन और जाता है। कर्मके निमित्तमे जीवकी विविध प्रकारकी श्वासोच्छ्वासकी प्राप्ति होती है वे पुद्गलविपाकी कर्म अवस्था होती है और जीवमं ऐसी योग्यता आती है. कहलाते हैं। इन दोनों प्रकारके कर्मोमे ऐसा एक भो जिमसे वह योगद्वारा यथायोग्य शरीर, वचन, मन कर्म नहीं बतलाया है जिसका काम बाह्य सामग्रीका
और वामांच्छवामके योग्य पुदलोको ग्रहणकर उन्हें प्राप्त कराना हो। मानावेदनीय और अमातावेंदनीय ये अपनी योग्यतानुमार परिणमाता है।
स्वयं जीवविपाकी है। राजवार्तिकमे इनके कार्यका कर्मकी कार्य-मर्यादा यद्यपि उक्त प्रकारकी है निर्देश करते हुए लिखा हैतथापि अधिकतर विद्वानांका विचार है कि बाह्य यस्योदयाद्देवादिगतिषु शरीरमानम्ममुग्बप्राधिमामीकी प्राप्ति भी कर्मस होती है। इन विचारोंकी स्तत्मद्वद्यम. यत्फलं दुःखमनेकविधं तदमद्वद्यम् ।' पुष्टिमं वे मोक्षमार्गप्रकाशक निम्न उल्लेखाको उपस्थित करन हैं-तहां वेदनीय करि तौ शरीर विषै वा शरीर इन वानिकोकी व्याख्या करते हुए वहाँ लिग्वा हैने बाह्य नाना प्रकार मुख दुःग्वनिका कारण पर द्रव्य 'अनेक प्रकारकी देवादि गतियांम जिम कर्मके उदयमे का मयांग जरै है।-पृष्ठ ३५।।
जीवाके प्राप्त हुए द्रव्यके मम्बन्धकी अपेक्षा शारीरिक उमीम दृमग प्रमाण व यो देते है
और मानमिक नाना प्रकारका सुखरूप परिणाम होता 'बहुरि कर्मनि विप वेदनीयक उदय करि शरीर है वह माता वेदनीय है। तथा नाना प्रकारकी नग्कादि विप बाह्म मुख दुःखका कारण निपज है। शरीर विपै गतियोमे जिम कमके फलस्वरूप जन्म, जरा, मरण.
आरोग्यपनी, गेगीपनौ, शक्तिवानपनी, दुर्बलपनी और इष्टवियांग, अनिष्टमंयोग, व्याधि, वध और बन्धनादि क्षुधा तृपा गग ग्वेद पीडा इत्यादि मुग्व दु:खनिक से उत्पन्न हुआ विविध प्रकारका मानसिक और कारण हा है । बहुरि बाह्य विप सुहावना ऋत पावना- कायिक दुःमह दु:ग्य हाता है वह अमाता वेदनीय है।' दिक वा इष्ट स्त्री पुत्रादिक वा मित्रधनादिक सुख
सर्वार्थमिद्धिमे जो सातावदनीय और अमातादुग्यके कारक हो हैं।-पृष्ठ ५६।।
वेदनीयक स्वरुपका निर्देश किया है। उससे भी उक्त इन विचागकी परम्पग यहीं तक नहीं जाती है कथनका पुष्टि हाता है। किन्तु इससे पूर्ववर्ती बहुतसे लेखकोने भी मे ही भी इन कर्माका यही अथ किया है । एमी हालतमे इन विचार प्रकट किये है। पुराणामे पुण्य और पापकी कर्माका अनुकूल व प्रतिकूल बाह्य सामग्रीके मंयोगमहिमा इमी आधारसे गाई गई है। अमितगतिके वियागमे निमित्त मानना उचित नहीं है। वास्तवमे सुभापितरत्रमन्दाहमे दवनिम्पण नामका एक अधि
बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति अपने-अपने कारणोमे होती कार है। उममें भी ऐमा ही बतलाया है। वहाँ लिखा है। इसकी प्राप्तिका कारण काई कर्म नहीं है। है कि पापी जीव ममुद्रमे प्रवेश करनेपर भी रन नहीं ऊपर मोक्षमार्ग प्रकाशकके जिम मतकी चर्चा की पाता किन्तु पुण्यात्मा जीव तटपर बैठे ही उन्हें इसके सिवा दो मत और मिलते हैं। जिनम बाह्य प्राप्त कर लेता है । यथा
सामग्रीकी प्राप्तिक कारणोका निर्देश किया गया है। 'जलधिगनाऽपि न कश्चित्कश्चित्तटगोऽपि रत्नम्पयाति ।' इनमेसे पहला मत तो पूर्वोक्त मतसे ही मिलता
किन्तु विचार कग्नपर उक्त कथन युक्त प्रतीत जुलता है। दृमरा मत कुछ भिन्न है। आगे इन दानो नहीं हाता । खुलामा इस प्रकार है-
के आधारसे चर्चा कर लेना इष्ट है- - ___ कमकं दा भेद है-जीवविपाकी और पुदलविपाकी (१) षटखण्डागम चूलिका अनुयोगद्वारमे प्रकृजा जीवकी विविध अवस्था और परिणामांके होनेमें तियोंका नाम-निर्देश करते हुए सूत्र १८ की टीकामें निमित्त होते हैं वे जीविपाकी कर्म कहलाते हैं। और वीरसेन स्वामीन इन कोकी विस्तृत चर्चा की है।