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________________ किरण ७ ] कर्म और उसका कार्य सर्वप्रथम उन्होंने माता और असातावेदनीय का वही स्वरूप दिया है जो सर्वार्थसिद्धि आदिमें बतलाया गया है। किन्तु शङ्का समाधानके प्रमङ्गसे उन्होंने सातावेदनीयको जीवविपाकी और पुलविपाकी उभयरूप सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। इस प्रकरणके वाचनेसे जाब होता है कि वीरसेन स्वामीका यह मत था कि सातावेदनीय और असातावेदनीयका काम सुग्य-दुखको उत्पन्न करना तथा इनकी मामग्रीको जुटाना दोनों है । (२) तत्त्वार्थसूत्र अध्याय २. सूत्र ४ की सर्वार्थfafa टीकामे बाह्य सामग्रीको प्राप्तिके कारणांका निर्देश करते हुए लाभादिकां उसका कारण बतलाया है । किन्तु सिद्धमं अतिप्रसङ्ग देनेपर लाभादिके साथ शरीरनामकर्म आदिकी अपेक्षा और लगा दी है। ये दो ऐसे मत है जिनमे बाह्य सामग्री की प्रामिका क्या कारण है इसका स्पष्ट निर्देश किया है। आधुनिक विद्वान भी इनके आधारमे दोनो प्रकारकं उत्तर देत पाये जाते है। कोई तो बेदनीयको बाह्य सामग्रीकी प्रातिका निमित्त बतलाते है। और कोई लाभान्नगय आदिके क्षय व नयोपशमको । इन विद्वानांके ये मत उक्त प्रमाणके बल भले ही बने हो किन्तु इतने मात्रसे इनकी पुष्टि नहीं की जासकती, क्योंकि उक्त कथन मूल कमव्यवस्थाके प्रतिकूल पड़ता है। यदि थोड़ा बहुत इन मतांको प्रश्रय दिया जा सकता है तो उपचारसे ही दिया जासकता है। वीरमेन स्वामीने तो स्वर्ग, भोग-भूमि और नरक में सुख-दुखकी निमित्तभूत सामग्री के साथ वहाँ उत्पन्न होनेवाले जrati माता और माता का सम्बन्ध दे कर उपचारसे इस नियमका निर्देश किया है कि बाह्य सामग्री माना और अमानाका फल है। तथा पूज्यपाद स्वामीने संसारी जीव बाह्य सामग्रीमे लाभादि रूप परिणाम लाभान्तराय आदिकं तयापशमका फल जानकर उपचार इस नियमका निर्देश किया है कि लाभान्तराय आदिके क्षय व क्षयोपशममं बाह्य सामग्री की प्राप्ति होती है। तत्त्वतः बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति न तो माता-माताका ही फल हैं और न लाभान्तराय :५५ आदि कर्मके क्षय व क्षयोपशमका ही फल है। सामग्री इन कारणोंसे न प्राप्त होकर अपनेअपने कारणोंसे ही प्राप्त होती है। उद्योग करना, व्यवसाय करना, मजदूरी करना, व्यापार के साधन जुटाना, राजा महाराजा या सेठ साहुकारकी चाटुकारी करना, उनसे दोस्ती जोड़ना. अर्जित धनकी रक्षा करना. उसे व्याजपर लगाना. प्राप्त धनको विविध व्यवसायांमे लगाना, खेती-बाड़ी करना, झाँसा देकर ठगी करना. जेब काटना, चोरी करना, जुया खेलना, भीख मांगना, धर्मादयका सचित कर पचा जाना आदि बाह्य सामग्रीकी प्राप्तिके साधन हैं। इन व अन्य कारणांसे बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति होती है उक्त कारणों से नहीं । शक्का - इन सब बातोंके या इनमेंसे किसी एकके करनेपर भी हानि देखी जाती है मां इसका क्या कारण है ? समाधान-प्रयत्नकी कमी या बाह्य परिस्थिति या दोनो । शङ्का - कदचित व्यवसाय आदि नहीं करनेपर भी धनप्राप्ति देखी जाती है. मां इसका क्या कारण है ? समाधान - यहाँ यह देखना है कि वह प्राप्ति कैसे हुई है ? क्या किसीक देन हुई है या कही पडा हुआ धन मिलने से हुई है ? यदि किसीके देनम हुई है तो इसमें जिसे मिला है उसके विद्या आदि गुण कारण है या देनेवालको स्वार्थसिद्धि, प्रेम आदि गुण कारण है। यदि कहीं पड़ा हुआ धन मिलनेमे हुई है तो ऐसी धनप्राप्ति पुण्योदयका फल कैसे कही जा सकती है। यह तो चोरी है। अत: चोरी HTT इस धनप्राप्तिमं कारण हुए न कि माताका उदय । शङ्का आदमी एक साथ एक मा व्यवसाय करते हैं फिर क्या कारण है कि एकको लाभ होता है और दमको हानि ? समाधान-व्यापार करनेमें अपनी अपनी योग्यता और उस समयकी परिस्थिति आदि इसका कारण है, पाप-पुण्य नहीं । संयुक्त व्यापारमै एकको हानि और दूसरेको लाभ हो तो कदाचित हानि-लाभ
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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