________________
२५२
अनेकान्त
[वर्ष
वास्तविक सुग्य-शान्ति प्राप्त नहीं करता-केवल हुई । आत्माके स्वरूपको उन्होंने नहीं जाना। उनकी क्षणिक-मी शान्तिका पाकर फिरमे उन्हीं उलझनोमे दृष्टि मांसारिक भागोमे ही लगी रही। फॅम जाता है, पर मची शान्तिका हल वहाँ नहीं पाता। स्वर्गमें जाकर अनेक प्रकारके मांसारिक भागोमे
मंमाग्मे असंख्य पदार्थ दिवाई देत है। प्रत्यकर्म रमण करने या नरकम निवास करके नाना प्रकार अनगिनत गुण है। प्रति-समय उनकी पयाय पलटती की यातनाको सहने या मनुष्य-भव प्राप्त करके जाती है-किसी पदार्थमे भी स्थिरता नहीं पाई जाती। कला-कौशल तथा प्रभुताको पानेपर भी प्रात्माका कोई पैदा होता है तो कोई नाश होता है। यह सब अपने असली स्वरुपकी पहचान नहीं हुई-श्रात्मा परिवर्तन क्या है ? क्या आपने कभी सोचा है ? यह बन्धनमें पडा ही रहा । परतन्त्र तो रहा ही। मध संसारचक्र है। जिस प्रकार २, ३, ४, ५ आदि शब्दांक मेलसे नाना प्रकारके पदवाक्यादि बन जाते
कितने ही प्राणी यह समझत है कि धर्मस्थानामे है उसी प्रकार २. ३, ४ श्रादि वस्तुओके मेलसे नाना
जानेमे और देवोकी भक्ति-उपासना करनेम आत्माका प्रकारके भौतिक पदार्थ नये-नय रूपमे सामने आतं
असली स्वरूप मालूम होजायगा और इसके लिय वे रहते हैं। यह संसारका चक्कर है और वह इसी प्रकार वह
वहाँ जाते है और रागी. दुपी नाना प्रकारके देवीसदा चलता रहेगा। मनुष्य अपनी अपूर्ण अवस्थामै दवताआकी मान्यता करत है। परन्तु उनसे भी उन्हें कभी भी किसी पदार्थके पूर्ण गुणोको जान नहीं सकेगी श्रात्मान
श्रात्माका अमली स्वरूप मालूम नही हो पाता। -उसका पूग ज्ञान कभी नहीं हासकेगा। और इस वास्तवमे तथ्य यह है कि आत्माम राग-द्वपकी लिये उसे सदा असंतोष और दुख बना रहेगा। काई कल्पनाका अभाव हाजाना ही आत्माकी असली शांति भी प्राणी यह नहीं कहता कि “मै अव मंमारकी है और वही आत्माका वास्तविक निज स्वभाव हैसम्पत्ति व प्रभुना प्राप्त कर चुका है और यह सदा राग और द्रुपका सवथा अभाव अथान प्रशम-गुणमरे पास इसी तरहसे स्थिर बनी रहेगी और मैं मदा यथाव्यातचारित्रादि आत्मा (जीव) की असला मुख भांगता रहूँगा।" प्रत्येक प्राणी अधिकमे अधिक सम्पत्ति है। संसारदशाम वह पुगलकाँसे ढकी हुई धनादिककी इच्छा करता है। जो साधु भी होजाते है-अपने विवेक.संयम,तप:माधना आदि निज प्रयत्नो है उनमे भी अधिकांश अपनी मेवा कराकर धन से उन पुढलकों के अलग होजानेपर वह प्रकट
आदिका ही आशीर्वाद देते है। इससे पता चलता है होजाती है। यह आत्मस्वभाव ही हम सबके लिये कि वे साधु होकर भी धनादिकमे ही सुखकी स्थापना उपादेय है और इस दिशामे ही संमारी जीवांके प्रयत्न करते हैं-उन्हें वास्तविक विवेक-बुद्धि जागृत नही श्रेयस्कर एवं दुबमोचक हैं।