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________________ किरण २) सल का भाग्योदय कालका अभाव है। यहांपर तो श्री वीरसेन स्वामीने पणा करते हुए पत्र ३६४ पंक्ति २७में यह कहा हैस्वयं इस विषयको विलकुल स्पष्ट कर दिया है। अनन्तानुबन्धि चतुष्कका बन्ध व उदय दोनों साथ ६. आहार मार्गणानुसार अनाहारक जीवोंके व्यच्छिन्न होते हैं। इससे यह बात सिद्ध हो जाती है द्विस्थान प्रकृतियों ( वह कर्मप्रकृतियां जो केवल कि अनाहारक जीवों के अपर्याप्त कालमें दूसरे गुणपहले और दूसरे गुणस्थानमें बंधती हैं और जिनकी स्थानसे उपरिम गुणस्थानोंमै स्त्री वेदका उदय नहीं है। बन्ध पुच्छित्ति दूसरे गुणस्थानमें होती है) की प्ररू सल का भाग्योदय [ ले०-विद्याभूषण पं० के० भुजबली शास्त्री, मूडबिद्री ] ल सोमवंशसे संबद्ध यदुकुलका की बात है कि स्थानीय वसन्तदेवीके मन्दिरमें सल था। यह उत्तरसे आकर शशकपुर गुरुदेवसे धर्मोपदेश सुन रहा था इसी बीचमें सुदत्त वतमानमैसूर राज्यान्तर्गत मृडुगेरे यतिने दूरीपर एक बाघको खरगोशके पीछे दौड़ते तालुकमें अवस्थित अङ्गडिमें रह हुए देखा। इतने में यति सोचने लगे कि यह दीन रहा था। उस समय अङ्गडि एक खरगोश अवश्य बाघका प्रास बन जायगा, तत्क्षणही छोटासा ग्राम था। उसके चारों यति महाराजने धर्म-श्रवणार्थ पास में बैठे हुए परम ओर भयङ्कर जङ्गल था। सल भक्त वीर शिरोमणि सलसे कहा कि अदं पोय सल' महा शूर एवं व्यवहार चतुर था। फलत: वह अङ्गडि अर्थात् 'सल, उसे मारी। का रक्षक बनकर जङ्गलसे गांवमें श्रा, हानि पहुंचाने बस, गुरुजीका इतना कहना था कि सल हवाको वाले जङ्गली जानवरोंसे गांववालों की रक्षा करने तरह दौड़कर बाघकी पीठपर चढ़, कटारीकी सहायतासे लगा। इस कार्यके लिये इसे गांववाले प्रतिवर्षे उसे वश करके गुरुदेवके पादमल में ला पटका। अनाजके रूपमें कुछ कर देने लगे। शिष्य के इस अद्भुत शौर्यको देखकर गुरुजी बड़े इस प्रकार थोड़े समयके बाद सलके पास काफी प्रसन्न हुए। इस उपलक्ष में उत्तरोत्तर उन्नतिकी कांक्षासे अनाज एकत्रित हया। तब अपने गांवकी रक्षाके एक शिलालेखसे स्पष्ट है कि सुदत्त यतिने सलके लिये इसने एक छोटीसी सेना तैयार की। मल जैन शीर्यकी परीक्षा करनेकेलिये ही यह घटना घटित की थी। धर्मावलम्बी था। इसके श्रद्धय गुरु सुदत्त यति दमरे एक शिलालेखमें यह भी उपलब्ध है कि स्वयं पद्माथे + । सलको गुरुदेवपर असीम भक्ति थी। एक दिन बती देवीने सिंहका रूप धारण करके सरदार सलकी परीक्षा * 'Epigraphia cernatica'के आधार पर करनेमें यति सुदत्तकी सहायता की थी। साथ ही साथ यह + डा० सालेतोर सागर कहेवं बुचके शिलालेखों के भी सिद्ध है कि यनि महाराजने ही 'सिंह' सलका राजचिह्न श्राधारपर इन मुदत्त यतिका अपर नाम वधमान योगीन्द्र नियनकरके पोय-मल या होयमल उसका विजयी नाम घोषित बताते हैं । [Mediaeval Jainism] पर वह यह नहीं किया था। [Epigraphia Carnatica' भाग ८ बामके कि सुदत्त यतिका नाम वर्धमान योगी द्रकोपड़ा। पृष्ठ ५]
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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