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अनेकान्त
प्रकृति तक श्रोघके समान जानना चाहिये। विशेषता इतनी है कि द्विस्थानिक और श्रप्रत्याख्यानावरणीयकी प्ररूपणा पश्चद्रिय तिर्य चौके समान है। इस सूत्रको टीका में पत्र १३१ पर श्री वीरसेन स्वामीने जहां भेद है उसे बताया लिखा है कि मिध्यादृष्टिमें ५३, सासादन में ४, सम्य मिध्यादृष्टि में ४२ और असंयतसम्य:दृष्टि गुणस्थान में ४४ प्रत्यय होते हैं; क्योंकि यहां वैयिक व वैक्रियिकमिश्र प्रत्यय नहीं होते मनुष्यनियोंमें इसी प्रकार प्रत्यय होते हैं। विशेष इतना है कि सब गुणस्थानों में पुरुष व नपुंसक वेद,
सम्यग्दृष्टिगुणस्थान में औदारिकमिश्र व कार्मण, तथा अप्रमत्तगुणस्थान में प्राहारक द्विक प्रत्यय नहीं होते । प्रकट है कि प्रत्यय ( maas कारण) मूलमें चार और उत्तर सत्तावन होते हैं। इन में से कौन २ और कितने प्रत्यय किस २ गुणस्थान में होते हैं, यह सब पत्र २० से २७ तक टीकाकारने कथन किया है। यहांपर इस कथनसे कि मनुष्यनियोंमें सब गुणस्थानमें पुरुष व नपुंसक वेद और अप्रमत्तगुणस्थान में आहारद्विक प्रत्यय नहीं होते, स्पष्ट हो जाता है कि गति मार्गेणा में मनुष्यनी शब्द से श्राशय भावस्वी का है, द्रव्य-स्त्रीका नहीं। यदि द्रव्यस्त्रीका आशय होता तो मनुष्यनी में अप्रमत्त गुणस्थानको न कहते और पुरुष व नपुंसक वेदका अभाव भी नहीं कहते, क्योंकि द्रव्य-स्त्रीके अप्रमत्तगुणस्थान संभव नहीं और वेद विषमतामें पुरुष व नपुंसक प्रत्यय हो सकते हैं। यहांपर मनुष्यनियोंमें पर्याप्त व अपर्याप्त अवस्था का भी विचार किया गया है; क्योंकि श्रदारिकमिश्र व
कार्मण प्रत्ययों का कथन है जो केबल अपर्याप्त कालमें ही होते हैं। मनुष्य नियोंके असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानमें प्रौदारिकमिश्र व कार्मण प्रत्यय नहीं होते । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य नियोंके अपर्याप्त कालमें सम्यक्त्व नहीं होता।
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दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि कहे हैं (सूत्र १४४ व १४५ पत्र २०५ व २०६ ) । यहां टीकामें श्री वीरसेन स्वामीने स्वोदय- परोदय बन्ध बताते हुए पत्र २०७, पंक्ति १६-२० में पुरुषवेदका बंध असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में स्वोदयसे कहा है, परोदय से नहीं । इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में मनुष्य व तिर्यचों के अपर्याप्त क लमें केवल पुरुषवेदका ही उदय होता है । स्त्री या नपुंसक वेदका उदय नहीं रहता। यदि स्त्री या नपुंसक वेदका उदय भी सम्यग्दृष्टि के अपर्याप्तकाल में होता तो पुरुपवेदकान् स्वोदय न कह कर स्वोदयपरोदय कहते। जिस प्रकार मिध्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में कहा है। अतः जिसके श्रदारिक मिश्रकाय योगमें सम्यक्त्व होगा उसके स्त्री वेद नहीं होगा
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२. योग मार्गणानुसार औदारिकमि श्रकाययोगियों में पांच ज्ञानावरणीय आदि प्रकृतियोंके बन्धक मिध्या
बताते हुए पंक्ति २५ में असंयतसम्यग्दृष्टि ३. पत्र २०८में औदारिकमिश्रकाय योगके प्रत्यय प्रत्यय होते हैं। चूंकि असंयतसम्यग्दृष्टियों में स्त्री इससे भी यह सिद्ध होता कि है मनुष्य व तियेचोंक और नपुंसक वेदोंके साथ बारह योगोंका अभाब 1 अपर्याप्त कालमें संयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में स्त्री वेदका उदय नहीं होता ।
४. पत्र २३५ पर कामकाययोगियों में प्रत्यय बताते हुए पंक्ति १८ में यह कहा है कि अनन्तानुबन्धि चतुष्क और स्त्रीवेदको कम करनेपर असंयतसम्यको कम नहीं किया है; क्योंकि जो सम्यष्टि कर दृष्टियों के तेतीस प्रत्यय होते हैं। यहां पर नपुंसक वेद नरकमें जा रहा उसके नपुंसक वेदका सद्भाव कालमें स्त्री वेदका उदय किसी भी गतिमें संभव नहीं पाया जाता है । परन्तु असंयतसम्यग्दृष्टिके अपर्याप्त
है।
५. योग मार्गणानुसार स्त्रीवेदीके प्रत्यय बताते हुए पत्र २४४ पंक्ति २१-२३ में लिखा है कि असंयत सम्यग्दृष्टियों में श्रदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कामंणकाय योग प्रत्ययोंको कम करना चाहिए: क्योंकि स्त्री- वेदियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टियों के अपर्याप्त