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किरण २]
देखा, तो पीताम्बर पहने और हाथ में बोरणा लिये नारद दिखाई दिये । वृद्ध उन्हें साधारण भिक्षु समम कर भरे हुए कण्ठसे बोला- स्वामिन् धैर्यकी भी कोई सीमा है। एक-एक कर के आठ बेटोंको आगमें घर आया। अब ले देकर के घर में एक टिमटिमाता दीपक बचा था, सो आज वह भी क्ररकाल श्रन्धीने बुमा दिया फिर भी धैर्य रखनेको कहते हो, बाबा ! धैर्य मेरे पास है ही कहां जो उसे रखूं, वह तो कालने पहले ही छीन लिया। मुझे अब बुढापेमें रोनेके सिवाय और काम भी क्या रह गया स्वामिन् !
सम्यग्दृष्टि अपर्याप्त काल में स्त्री-वेदी हो सकता है
सहनशक्ति से अधिक आपत्ति आनेपर आस्तिक भी नास्तिक बन जाते हैं । जो पर्वत सीना ताने हुए करारी चून्दोंके बार हँसते हुए सहते हैं. वे भी श्राग पड़ने पर पिघल उठते हैं । ज्वालामुखीसे सिहर उठते हैं। नारदको भय हुआ कि वृद्ध नास्तिक न हो जाय अतः बोले
"तो क्या तुम अपने पौत्रको मृत्युसे सचमुच दुखी हो ? वह तुम्हें पुन: दिखाई दे जाय तो क्या सुखी हो सकोगे ?
वृद्धने निर्निमेष नेत्रोंसे नारदकी ओर उसी तरह देखा जिस तरह नङ्गी उधारी स्त्रियां लाईन में खड़ी
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श्री षट्खण्डागमके ६३ सूत्रपर 'संजद' पदके विषय में चर्चा चलते हुए एक यह विषय भी विवाद रूपमें आगया कि असंयत-सम्यग्दृष्टि अपर्याप्त कालमें श्री वेदी हो सकता है या नहीं ? द्रव्य-त्री होना तो किसीको इष्ट नहीं है, केवल भाव- स्त्री या स्त्री वेदके उदयपर विवाद है । इस विषय में पं० फूलचन्द जीशास्त्री पं० दरबारीलालजी न्यायाचार्य आदि विद्वानोंने युक्ति
कपड़ेकी दुकानको ओर देखतीं हैं। वृद्धने अपने हृदयकी वेदनाको आंखों में व्यक्त करके अपनी अभिलाषाको उसो मौन भाषामें प्रकट कर दिया जिस भाषामें बङ्ग - महिलाओंने सतीत्व- लुटने की व्यथाको महात्मा गान्धीपर जाहिर किया था ।
नारदकी मायासे क्षितिजपर पौत्र दिखाई दिया तो वृद्ध विह्वल होकर उसी तरह लपका जैसे सिनेमा शौक़ीन टिकट घरकी ओर लपकते हैं।
"अरे मेरे लाल, तू कहां चला गया था" ? 'अरे दुष्ट तू मेरे शरीरको छूकर अपवित्र न कर पूर्व जन्म में तूने और तेरे आठ पुत्रोंने जिन लोगोंको यन्त्रणाएँ पहुंचाई थीं । ऐश्वये और अधिकारके मदमें जिन्हें तूने मिट्टीमें मिला दिया था। वे ही निरीह प्राणी तेरे पुत्र और पौत्र रूपमें जन्मे थे । ये रुदन करती हुईं तेरी आठों पुत्र बधू तेरे पूर्व जन्म के पुत्र हैं, जिन्होंने न जाने कितनी विधवाओं का सतीत्व हरण किया था" ।
स्वर्गीय श्रात्मा विलीन हो गई। वृद्धके चेहरेपर स्याही-सी पुस गई। नारदबाबा वीणापर गुनगुनाते चले गये
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् । भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस, ३ फरवरी १६४८
क्या सम्यग्दृष्टि अपर्याप्तकाल में स्त्रीवेदी हो सकता है ?
[लेखक - बाबू रतनचन्द जैन, मुख्तार
तथा आगम प्रमाण द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि असंयत सम्यग्दृष्टिके अपर्याप्त काल में स्त्रीवेदका उदय नहीं होता, यहां पट्खंडागमके तृतीयखंड बंध त्वामित्वविवयको श्री वीरसेन स्वामि-कृत धवला टोकासे स्पष्ट है ।
१. पत्र १३० सूत्र ७५में कहा है- मनुष्यगतिमें मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, एवं मनुष्यनियों में तीर्थकर