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________________ ७६] भनेकान्त । वर्ष । पति महाराजने शिष्य सलको गम्भीर आशीर्वाद यतिको होयसल राज्यको स्थापना करना आवश्यक दिया। पीछे वह घाटोंमें छोटे छोटे नायकोंको प्रतीत हुआ। डा० भास्करानन्द सालेतोरने इस संबंधों जोतकर उस समूचे प्रान्तका शासक बना। निम्नप्रकार लिखा है-होयसल राज्य जैनी बुद्धि उस जमाने में जनतामें धर्म-श्रद्धा विशेष थी। कौशलकी दूसरी श्रेष्ठ कृति था। अत: अहिंसाप्रधान मुनिवर सुदत्त वहांकी जनताके लिये साक्षात् ईश्वर थे जैनधर्मने विजयनगर साम्राज्यके उदय काल तक दो उनकी आज्ञा विना जनता कोई कार्य नहीं करती थी। बार देशके राजनैतिक जीवनमें नव जागृतिका संचार सुदत्त यतिमें एक विलक्षण तेज एवं प्रभाव वर्तमान किया। जैनाचार्योने राज्यकी सहायता पाने केलिये ही था। इसलिये एक शब्द भी उनके विरुद्ध बोलनेका इन साम्राज्योंकी स्थापना नहीं की। क्योंकि दक्षिणमें साहस वहांकी जनतामें नहीं था। फलत: सलको हर जैनधर्मके केन्द्र पहलेसे विद्यमान थे और उनमें उच्च प्रकारसे जनतासे सहायता मिलती थी। धीरे धीरे कोटिके विद्वान मौजूद थे, जैसे भारतमें विरले ही सल अपनी सेनाको बढ़ाकर आस-पासके प्रान्तोंका हुए हैं। प्रत्युत उन्होंने राज्य स्थापनामें सक्रिय भाग भी नायक बना। इसलिये लिया कि देशकी राजनैतिक विचारधारा ठीक उस समय सल जिस देशमें ण, वह चोल दिशा में बहे, और राष्ट्रीय जीवन उन्नत बने । भारतके राजाओंके वशमें था। अपनी मातृभूमिको परतन्त्रता इतिहास में जैनधर्मका महत्व इसी कारण है। होयमल से मुक्त कराने के लिये सलने चालुक्योंकी सहायता जैन राज्यसे ही विजयनगरके सम्राटोंको वह सन्देश प्राप्त कर अपने देशको स्वतन्त्र बनाया। बल्कि क्रमशः मिला जिसने भारतके इतिहासमें एक नया गौरवपूर्ण चोल वर्तमान समूचे मैसूरसे ही खदेड़ दिये गये। अध्याय ही खोल दिया। इस वंशमें विनयादित्य, होयसल वंशने लगभग १० वर्पतक राज्यशासन किया एरेयंग, विष्णुवधेन + नारसिह और बल्लाल आदि था। इस वंशकी राजधानी पहले वेलूर, और पीछे कई धर्मश्रद्धालु शासक हो गये हैं जिन्होंने अपने द्वार समुद्र रहा। इस लिये ये 'द्वाराबतो पुरवराधीश्वर' शासन कालमें जैनधर्मको काफी सेवा की थी। सकलचंद्र कहलाते थे। बालचन्द्र, अभयचन्द्र, रामचन्द्र, शान्तिदेव तथा निस्सन्देह होयसलोंका समय जैनधर्म के हासका गोपनन्दी श्रादि विद्वान जैनाचार्य उपयुक्त शासकों के था। चोल राजाओं के द्वारा जैनराष्ट्र गंगवादिका अंत गरु या प्रबल प्रेरक रहे। आज 'अनेकांत' के विज्ञ हो चुका था। ६षाव और शैव श्राचार्योने अपने पाठकों के समक्ष होयसल बंशका इतना ही परिचय चमत्कासेि शासक वर्गपर अपना अधिकार जमा दिया गया है। लिया था। ऐसे विकट समय में जैन यतिको धर्मप्रभा- ....----- कना और राष्ट्रोद्धारकी सुध पाना स्वाभाविक था। * Mediaeral Jainisin,P P. 50-60. राष्ट्रीय जागृति के प्रभावमें धर्मोन्नतिका होना कठिन + यद्यपि यह पीछे वैष्णव हो गया था, फिर भी अंत था। इसलिये सिहनंद्याचार्यके अनुरूप ही श्रीसुदत्त तक जैनधर्मपर इनकी सहानुभूति बनी रही। सद्विचार-मणियां १-जिसके राग-द्वेष-मोह क्षीण हो गये हैं बह २-चक्रवर्तिको सम्पदा इन्द्रलोकके भोग । फकीर कारोंपर जो सुख अनुभव करता है वह पक- काकवीट सम गिनत हे वीतरागके लोग। वीं भी अपनी पुषशेरवापर नहीं अनुभव कर जैनवाङ्मय सकता। - -
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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