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________________ किरण ] ममवमग्णमे शुद्रोंका प्रवेश १७५ एक गन्धकुटीक पाम चक्रपीठकी भूमिपर और दुमरा फलस्वरूप श्रावकके वनोंको भी ग्रहण करते है, जिन श्रीमण्डपके बाह्य प्रदेशपर । हरिवशपुराणके उक्त के ग्रहणका पशुओको भी अधिकार है, यह स्वतः श्लोकम श्रीमण्डपकं बाध प्रदेशपर प्रदक्षिणा करने सिद्ध हो जाता है। फिर श्रादिपुराण-उत्तरपुराणके पालोमा ही उल्लेख है और उनमें प्राय व लाग प्राधारपर उमको अलगसे मिद्ध करनेकी जरूरत शामिल है जो पाप करनेके श्रादी है-श्रादतन भी क्या रह जाती है । कुछ भी नहीं। (म्वभावन') पाप किया करते है, खाट या नीच कम इमके सिवाय, किमी कथनका किसी प्रथम करने वाले अमन शुद्ध है, धूतताकं कायमे निपुण यदि विधि तथा प्रतिपंध नहीं होता तो वह कथन (महाधृत) है, अङ्गीन अथवा इन्द्रियहीन है और उम ग्रन्थक विरुद्ध नहीं कहा जाना। इम बानको पागल है अथवा जिनका दिमाग चला हृया है। श्राचाय वीरमनन धवलाक क्षेत्रानुयांग-द्वारम निम्न और इम लिये समवमग्गगम प्रवेश न करने वालोकं वाक्य-द्वारा व्यक्त किया हैमाथ उसका कोई मम्बन्ध नहीं है। छठ, अध्यापकजीन व्याकरणाचायजीक मामने "ण च मत्तरज्जुबाहल्ल करणारिणांगसुत्तउक्त शोक और उपकं उक्त अथका रखकर उनमे जा विरुद्ध, तत्थ विधिप्पडिसंधाभावादी" (पृ०२२) यह अनुगध किया है कि "आप अन्य इतिहासिक अर्थात्-लोककी उत्तरदक्षिण सर्वत्रमातराजु प्रन्थों (आदिपुराण- उत्तर पुराण के प्रमाण द्वाग इमक मोटाईका जो कथन है वह 'करणानुयोगमृत्र'क अविमद्ध सिद्ध करके दिग्बलाव और परम्परम विगध विरुद्ध नहीं है, क्योकि उस सूत्रम उसका यदि हानका भी ध्यान अवश्य रकव" वह बडा ही विधान नही हैं ना प्रतिपंध भी नहीं है। विचित्र और चतुका मालूम होता है । जब अध्यापक शुद्रीका ममवमरणम जाना, पूजावन्दन करना जा व्याकरणाचायजीक कथनका श्रागविरुद्ध मिद्ध और श्रावकक व्रताका ग्रहण करना इन तीनो बानोकरनक लिय उनके ममक्ष एक आगम-वाक्य और का जब आदिपुराण तथा उत्तरपुगणम स्पष्टरुपमै उमका अथ प्रमाणम रख रहे है तब उन्हीम उमक काई बिधान अथवा प्रतिपंध नहीं है सब इनक विरुद्ध मिद्ध करन लिय कहना और फिर अवि. गंधर्म भी विगंधकी शढ़ा करना कारी हिमाकनक कथनका आदिपुराण नथा उत्तरपुराणके विरुद्ध नही कहा जा नकता । वैम भी इन नानी बातोका कथन मिवाय और क्या हो मक्ता है ? और व्याकरणा आदि पुराणादिकी गति, नीति और पद्धतिक विरुद्ध चार्यजी भी अपन विरुद्ध उनके अनुगंधको माननक नही हा मकना, क्योकि आदिपुगगम मनुष्यांकी लिय कब नयार हा मकन है? जान पडना है वस्तुनः एक ही जानि मानी है, उमाक वृत्तिअध्यापकजी लिखना ना कुछ चाहत थ और लिम्ब (श्राजाविका)भेदसे ब्राह्मणादिक चार भद बतलाय गयं कुछ और ही है, और यह आपकी मवालन है', जा वास्तविक नहीं है। उत्तरपुगरणम भी माफ भापा नथा श्रमावधान लेखनीका एक नाम नमूना कहा है कि इन ब्राह्मणादि वर्गा-जातियांका आकृति है जिमकं बल-बूतपर श्राप सुधारकाका लिग्विन आदिके भेदको लिये हुए काई शाश्रत लक्षण भी शास्त्रार्थका चैलज देन बैट है।। गा-अश्वादि जातियांकी तरह मनुष्य शगम नही मातव, शोका ममवमरणमे जाना जब अध्याप- पाया जाता, प्रत्युन इमकं शूद्रादिक यागम माहागी फजीक उपस्थित किये हा हरिवशपुगगाक प्रमाणसे ही आदिकम गर्भाधानकी प्रवृत्ति दबी जाती है, जो मिद्ध है तब वे लाग वहाँ जाकर भगवानकी पूजावन्दनाक अनन्तर उनकी दिव्य वागीका भी सुनने मनुष्य जानरे फैव जानिकर्मादयोद्भवा । है, जो मारं ममवमरणने व्यान होती है, और उमक वृक्तिमदा हिनदंदाचविध्यामहाश्नुनं ॥35॥
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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