________________
अनेकान्त
[वर्ष ९
पास्तविक जाति भेदके विरुद्ध है । इसके मिवाय, और धर्मश्रवणके लिये शूद्रोंका ममवमरणमे जाना मादिपुराणमें दूषित हुए. कुलोंकी शुद्धि और अन- प्रगट है।" क्षरम्लेच्छों तकको कुलशुद्धिप्रादिके द्वारा अपनेमे इम अंशको 'ममोशरण' जैसे कुछ शब्द-परिमिला लेनकी स्पष्ट आज्ञाएँ भी पाई जाती है। ऐसे वर्तनके माथ पद्धत करने बाद अध्यापकजी लिखते उदार उपदेशोंकी मौजूदगीमे शूद्रोंक समवसरणम है-"इस लेखको श्राप मस्कृत हरिवंशपुराणके जाने आदिको किमी तरह भी पादिपुराण तथा प्रमाणों द्वारा सत्य मिद्ध करके दिखलावे। आपको उत्तरपुराणके विरुद्ध नहीं कहा जा सकता । इसकी अर्मालयन म्वय मालूम होजावेगी।" विरुद्ध न होनकी हालतम उनका 'अविरुद्ध' होना मेरी जिनप्रजाधिकाग्मीमामा पुस्तक आज सिद्ध है. जिसे सिद्ध करने के लिये अध्यापकजा १००) कोई ५ बर्ष पहले अप्रेल मन १९५४में प्रकाशिन क०के पारितापिककी घोषणा कर रहे है और उन हुई थी। उस वक्त तक जिनमेनाचार्यके हरिवंशरुपयोंको बाबू गजकृष्ण प्रेमचन्दजी दग्यिागम पुगणकी पदोलनरामजी कृत भाषा बर्चानका ही कोठी न००३ देहलीके पास जमा बतलाते हैं। लाहोरम (मन १९१८म) प्रकाशमं श्राई थी और वही
चैलेख लेखम मेरी जिनपूजाधिकामीमांसा' अपने मामन थी। उममें लिखा थापुस्तकका एक अंश उद्धृत किया गया है, जा निम्न जिम ममय जिनराजन व्याख्यान किया उस प्रकार हैं
ममय ममधमग्णम मुर-अमुर नर निग्यश्च मभी "श्रीजिनमनाचार्यकृत हरिवंशपुगगण (सग २) थे, मी मब ममीप मवज्ञन मुनिधर्मका व्याख्यान में, महावीर स्वामी के ममवमरणका वणन करते हुए किया, मां मुनि होनको ममर्थ जो मनुष्य निनमे लिम्बा है--ममवमरणम जब श्रीमहावीर स्वामीन कंईक नर ममारसे भयभीत परिग्रहका त्याग कर मनिधर्म और श्रावकधर्मका उपदेश दिया तो उसको मुनि भय शुद्ध है जानि कहिये मातृपक्ष कुल कहिये मनकर पहुनसं ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य लोग मुनि पितृपक्ष जिनके ऐसे ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य मैकड़ी होगये और चार्ग बणोंके स्त्री-पुरुषनि अर्थात माधु भय ।। १३१, १३०॥ श्रीर केक मनुष्य ब्राहाण, त्रिय, वैश्य और शनि श्रावकके बारह चाग ही वर्गाके पश्च अगाउन तीन गुगत चार वन धारण किये। इनना ही नही किन्तु उनकी पवित्र- शिक्षा त्रत धार श्रावक भय। और चागं वकी वाणीका यहाँ तक प्रभाव पड़ा कि कुछ तियवान कईएक स्त्री श्राविका भई ॥५३४|| और मिहादिक भी श्रावकके व्रत धारण किये। इससे, पूजा-वन्दना तिथंच बहुन श्रावकं व्रत धारते भय, यथाशक्ति १ कृित्यादिभेदाना देहम्मिन्न च दशनात ।
नर्मावर्ष तिष्ये ॥१३॥" बाहापयादिप शूद्रालाँगमाधान-प्रवतनात ॥
इस कथनको लेकर ही मैन जिनपजाधिकारनास्ति जातिकृती भेदा मनुष्याणा गवाऽश्ववत् । मीमामाकं उक्त लेखाशको मृष्टि की थी । पाठक श्रानिमहणानम्मादन्यथा पारकल्यने ।। 3. प. गुणभद्र दवेगे, कि इस कथनके आशयकं विरुद्ध उममें कुछ २"कुतावकारणाद्यस्य कुल सम्प्राप्त दूपणम् ।
भी नहीं है। परन्तु अध्यापकजी इम कथनको शायद माछाप गजादिमम्मत्या शाधयेत्स्व यदा कुलम् ॥४.१६८ मूलमन्थ के विरुद्ध समझन है और इसी लिये मंस्कृत तदाऽस्थापनयादव पुत्र पोत्रादि-मन्तती ।
हरिवंशपुराणपास उसे मत्य मिद्ध करनेके लिये न निषिद्ध हि दीक्षा कृले चदस्य प्रवजा: ।।-१६॥ कहते है। उसमें भी उनका श्राशय प्राय: उननं ही "स्वदेशेऽनक्षमतान् प्रजा बाबा विभायिन. । अशमं जान पड़ता है जो शूटोके ममवमरणम कुलशुद्धि प्रदानाय स्वमान्बु यादपत्र में. ॥ ४२ ॥ उपस्थित होकर व्रत ग्रहणमे सम्बन्ध रखता है और
-याटिपगणं, जिनमन। उनके प्रकन चलज-लेम्बका विषय है। धन जमीपर