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________________ किरण ५] मगवमरणमे शूद्रोंका प्रवेश यहाँ विचार किया जाता है और यह देखा जाता है है बल्कि मानुषाः' जैसे सामान्य पदका प्रयोग करके और कि क्या पंडित दौलतगमजीका वह कथन मूलक उसके विशेषणको 'नाना' पदसे विभूषित करके मब आशयक विरुद्ध है । श्रावकीय व्रतोंके ग्रहणका उल्लेख के लिये उस खूला रक्खा गया है। साथम विद्याधरकरने वाला मूलका वह वाक्य इस प्रकार है - पुरम्सराः' विशेषण लगाकर यह भी स्पष्ट कर दिया है पचधाऽणुत्रत केचित त्रिविधं च गुगाग्रतम । कि उस काठमे विद्याधर और भूमिगांधरी दोनी शिनाव्रत चतुर्भेद तत्र स्त्री-पुरुषा दधुः ॥१३४॥ प्रकारके मनुष्य एक साथ बैठते हैं। विद्याधरका इमका मामान्य शब्दार्थ तो इतना ही है कि 'अनक' विशेषण उनके अनेक प्रकारका द्योतक है, 'ममवमरण-स्थित कुछ बीपुरुषोंने पंच प्रकार अणु- उनम मानङ्ग (चाण्डाल) जातियांक भी विद्याधर हात व्रत तीन प्रकार गुणत्रत और चार प्रकार शिक्षात्रत है और इस लिये उन सबका भी उमक द्वाग समाग्रहण किय। परन्तु विशेषार्थकी दृष्मि उन स्त्रीपरूपों वंश समझना चाहिए। को चारों वर्णोक बतलाया गया है क्योंकि किसी भी (व) ५८वे मगके तीसरे पद्यम भगवान नेमिनाथ वर्णके स्त्री-पुरुषों के लिये समवमरणम जाने पार की वाणीको 'चतुवर्णाश्रमाश्रया' विशेषण दिया गया व्रतोंके ग्रहण करनेका कही कोई प्रनिबन्ध नहीं है। है, जिसका यह स्पष्ट आशय है कि ममवसरणम इसक सिवाय, ग्रन्थकं पूर्वाऽपर कथनांस भी इसकी भगवानकी जो वाणा प्रवर्तित हुई वह चारों वणों पुष्टि होती है और वही अर्थ ममीचीन होता है जो और चागे आश्रमोका आश्रय लिय हए थी--अर्थान पूर्वाऽपर कथनोंको ध्यान रखकर अविगंध रूपसे चारों वर्षों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और चागं किया जाता है । ममवमरणमे अमन शुद्ध भी जान है श्राश्रमां ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, मन्यम्नको यह हम श्रीमण्डपसे बाहर उनके प्रदक्षिणा-विधायक लक्ष्यम रखकर प्रनित हुई थी। और इसलिये वह वाक्यक विवचनपरम ऊपर जान चुके है । यहां पूर्वाs- ममवमरणम चारों वणों तथा चारों आश्रमांक पर कथनोंक दा नमन और नीचे दिये जाने हे.- प्रारिणयाकी उपस्थितिका और उनके उसे सुनने तथा (क) ममवमरणक श्रीमण्डपमे वलयाकार काष्ठ- ग्रहण करनेक अधिकारका मुचित करती है। काक रूपमे जो बारह मभा-स्थान होते है उनमसमा हालनमे ५० दौलतराम जीन अपनी भाषा मनुष्यों के लिये केवल तीन स्थान नियन हात ह- वनिकाम 'स्त्रीपुरुषाः' पदका अथ जो 'चारों वर्णक पहला गणधगदि मुनियोंक लिय, नीमग प्रायिकाओ स्त्रीपुरुप' मुझाया है वह न ना भमन्य है और न के लिये और १५वा शेप मब मनुष्योक लिये। इम मूलग्रन्थक विरुद्ध है । तदनुमार जिनपुजाधिकारमी वे कोठका वर्णन करते हुए हग्विशपुगणक. दुसरं मामाकी उक्त पंक्तियोंम मैन जा कुछ लिखा है यह मगम लिम्वा है भी न अमत्य है और न ग्रन्थकारक पाशयक विरुद्ध मपुत्र-वनिताऽनक-विद्याधर-पुरम्सग । है। और इमलिय अध्यापकजीन कारं शब्दछलका न्यपीटन मानुषा नाना-भाषा-वेष-मचस्ततः ॥८ श्राश्रय लेकर जा कुछ कहा है वह बुद्धि और विवेक अर्थान-१०व कोटक अनन्तर पत्र और वनि- म काम न लेकर ही कहा जा सकता है। शायद नाना-महित अनेक विद्याधगंका आगे करके मनुष्य अध्यापकजी शूद्राम स्त्री-पुरुपोका होना ही न मानने बैट, जो कि (प्रान्तादिक मंदास) नाना भाषाप्रोक हां और न उन्हें मनुष्य ही जानते हों, और इसीसे बोलने वाले, नाना वाँको धारण करने वाले और 'मानुषाः' तथा 'स्त्री-पुरुषा' पोका उनं. वाच्य हीन नाना वर्णों वाल थे।" ममझते हों। इमम किसी भी वरण अथवा जाति-विशेष यहापर मैं इतना और भी बनला देना चाहता मानवाक लय व कोटको रिजब नही किया गया है कि जिम हरिवंशपुगणक कुछ शब्दोका गलत
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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