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________________ अनेकान्त [वर्ष ९ आश्रय लेकर अध्यापकजी शूद्रों तथा दस्साओंको मेरे उक्त लेखांश और उसपर अपने वक्तव्य के जिनपूजाके अधिकारसे वलित करना चाहते हैं उसके अनन्तर अध्यापकजीने महावीरम्वामीक समवमग्ण२६वे मर्गमें वसुदेवकी मदनवेगा-सहित 'सिद्धकूट- वर्णनसे सम्बंध रखने वाला धर्ममग्रहश्रावकाचारका जिनालय' की यात्राके प्रसङ्गपर उस जिनालयमं पूजा- एक श्लोक निम्न प्रकार अर्थसहित दिया हैवन्दनाके बाद अपने-अपने स्तम्भका आश्रय लेकर “मिध्यादृष्टिरभव्योप्यमंज्ञी कोऽपि न विद्यते । बैठे हुए' मातङ्ग (चाण्डाल) जानिके विद्याधरोंका जो ___यश्चानध्यवसायोऽपि यः संदिग्धी विपर्ययः ।।१६।। परिचय कराया गया है वह किसी भी ऐम आदमी अर्थात-श्रीजिनदेवकं समाशरणम मिथ्याष्टिकी अखि खालने के लिये पर्याप्त है जो शूद्रो तथा अभव्य - श्रमज्ञा - अनध्यवमायी - मशयज्ञानी तथा दस्माके अपने पूजन-निपंधको हरिवंशपुराणक मिथ्यात्वी जीव नहीं रहते है।" आधारपर प्रतिदिन करना चाहता है । क्योकि उम- इस श्लोक और उमक गलत अर्थको उपस्थित परस इतना ही स्पष्ट मालूम नहीं होता कि मातङ्ग करके अध्यापकजी बड़ी धृष्टता और गाक्तिके साथ जातियोंके चाण्डाल लोग भी तब जैनमन्दिरमे जाते लिखत है और पूजन करते थे बल्कि यह भी मालूम होता हे कि "बाबू जुगलकिशोरजीक निराधार लखका और श्मशान-भूमिकी हड़ियांके आभूपण पहने हुए, वहाँ- धर्ममग्रहश्रावकाचारकं प्रमाण सहित लेखका श्राप की राख बदनौ मले हुए तथा मृगछालादि ओढ़े, मिलान कर--पता लग जायगा कि वास्तवम आगमचमडके वस्त्र पहिने और चमड़ेकी मालाएं हाथोम के विरुद्ध जैन जनताको धोखा कौन देता है ?" लिय हुए भी जैनन्दिरमे जा मकते थे, और न मंग जिनपूजाधिकारमीमामा वाला उक्त लेख कंवल जा ही सकते थे बल्कि अपनी शक्ति और निराधार नहीं है यह मब बात पाठक ऊपर देख चुके भक्तिके अनुसार पूजा करने के बाद उनके वहाँ बैठने- है, अब देखना यह है कि अध्यापकजीक द्वारा प्रस्तुत के स्थान भी नियत थे, जिसमें उनका जैनन्दिरमे धर्ममग्रहश्रावकाचारका लख कान में प्रमाणको साथम जाने आदिका और भी नियत अधिकार पाया लिये हुए है और उन दोनांके साथ आप मेरे जाता है। लम्बकी किस बात का मिलान कराकर श्रागविरुद्ध १ कृत्वा जिनमह वटा: प्रव- प्रतिमागृहम । कथन और धीवादही जमा नतीजा निकालना चाहते तस्थुः स्तम्भानुपाश्रित्य बहुवेषा यया यथम ॥ ३ ॥ है ? धर्ममग्रहश्रावकाचारकं उक्त शोकक माथ अनु२ देयी, नाक १४ स २३ नया विवाहक्षत्रप्रकाश' पृष्ठ वादको छोड़कर दुमग कोई प्रमाण-वाक्य नहीं है। ३१ मे ३५ । यहां उन दममग दा श्लोक नमूनेक. तारपर मालूम होता है अध्यापकजीन अनुवाद को ही दुमग इम पकार है प्रमाण समझ लिया है, जो मूल के अनुरूप भी नहीं श्मशानाऽस्थि कृतोत्तमा मस्मरणु विधूमगः । है और न मर उक्त लग्बक माथ दानाका कोई मम्बध श्मशान-निलयास्त्वेत श्मशान स्तम्भमाश्चिताः ||१६|| ही है। मेरे लग्बम चारो वर्णक मनुष्यांक समवमरण कृगाजिन घरास्त्वेत काचर्माम्बर मजः । में जाने और व्रत ग्रहण करनेकी बात कही गई है, कानील स्तम्भ येत्य स्थिताः काल व पाकिनः ॥१॥ जब कि धममग्रहश्रावकाचारके उक्त श्लोक श्रीर अन३ यहॉपर इस उल्लेग्वपरमे किमीको यह समझनकी भूल न भी ऐमे लागाका जैनमन्दिरमे जाना आदि आपातक. करनी चाहिए कि लेम्वक अाजकल वर्तमान जनमन्दिरी याम्य नही ठहराया और न उसमें मन्दिरके अपवित्र हो में भी ऐसे अपवित्र वपमे जानेकी प्रवृत्ति चलाना जानकी ही मूचित किया। इसम क्या यह न ममझ लिया चाहता है। जाय कि उन्होंने एमा प्रवृत्तिका अभिनन्दन किया है ४ श्रीमनमनाचार्य ने हवा शताब्दीक वातावरण के अनुसार अथवा उस वग नहीं ममझा ?
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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