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________________ किरण ५] समवसरणमें शूद्रोंका प्रवेश वादमे उसके विरुद्ध कुछ भी नहीं है। क्या अध्यापक मिथ्याष्टिथे अथवा उन्हें किसी विषयमे सन्देह था। जी शुद्रांको सर्वथा मिथ्या दृष्टि, अभव्य, अमंज्ञी दूर जानेकी भी जरूरत नहीं, अध्यापकजीके मान्य (मनहित) अनध्यवमायी, मंशयज्ञानी तथा विपरीत ग्रन्थ धर्मसंग्रहश्रावकाचारको ही लीजिये, उसके (या अपने अर्थक अनुरूप मिथ्यात्वी') ही समझते है निम्न पद्यमे जिनेन्द्रसे अपनी अपनी शङ्काक पूछने और इमीम उनका समवसरणमे जाना निषिद्ध और उनकी वाणीको सुनकर सन्दह-रहित होनेकी मानते है ? यदि ऐमा है तो आपके इम आगम- बात कही गई हैज्ञान और प्रत्यक्षज्ञानपर रोना आता है; क्योंकि निजनिज-हृदयाकृतं पृच्छन्ति जिन नराऽमरा मनमा। आगम अथवा प्रत्यक्षसे इसकी कोई उपलब्धि नहीं श्रुत्वाऽनक्षरवाणी बुध्यन्त स्युर्विसन्देहाः ॥३-५४।। होती-शुद्र लोग इनमेमे किमी एक भी कोटिम हरिवंशपुगणक वे सर्गमे कहा है कि नेमिसर्वथा स्थित नहीं देखे जाते। और यदि ऐमा नहीं। नाथकी वाणीको सुनकर कितने ही जीव सम्यग्नर्शनहै अर्थात् अध्यापकजी यह समझते है कि शूद्र लाग को प्राप्त हुए, जिससे प्रगट होता है कि वे पहले मम्यग्दष्टि, भव्य, मज्ञी, अध्यवसायी, असशयज्ञानी मम्यग्दर्शनसे रहित मिथ्याटि थे । यथा:-- और अविपरीत (अमिथ्यात्वी) भी हाने है तो फिर ने मम्यग्दर्शन केचित्मयमामयमं परं । उक्त श्लाक और उसके अर्थका उपस्थित करनेसे क्या मंयम कचिदायाताः मसागवासभीग्व: ।।३.७॥ नतीजा ? वह उनका कोग चित्तभ्रम अथवा पागलपन नहीं तो और क्या है ? क्योंकि उमस शूद्रांक भगवान आदिनाथकं ममवमरणमे मरीचि ममवमरगम जानका तब कोई निपंध सिद्ध नही मिभ्याष्ट्रिक रूपम ही गया, जिनवाणीको सु हाता । ग्वेद है कि अध्यापकजी अपन बुद्धिव्यवमायक उसका मिथ्यात्व नहीं छूटा, और सब मिध्या तपइमी बल-वृतपर दूसरोंको आगमकं विरुद्ध कथन स्वियाकी श्रद्धा बदल गई और वे सम्यक तपमे स्थित करन वाल और जनताका धावा देने वाल तक हागये परन्तु मरीचिकी श्रद्धा नही बदली और इम लिखनकी धृष्टता करन बैठ है। लिये अकला वही प्रतिबाधको प्राप्त नहीं हुश्रा; जैसा कि जिनसेनाचार्य श्रादिपुगण श्रीर पुष्दन्त-कृत अब मै यह बतला देना चाहता हूँ कि अध्यापक महापुराणके निम्न वाक्यास प्रकट हैजीका उक्त शोकपरसं यह ममझ लेना कि ममवमरणमे मिध्याइष्टि नथा मशयज्ञानी जीव नहीं "मरीचि-वाः सर्वेऽपि तापसाम्तपसि स्थिताः।" होने कोरा भ्रम है-उमी प्रकारका भ्रम है जिमके आदिपुराण २४.८२ अनुमार व विपर्यय' पदका अर्थ 'मिथ्यात्वा' करके "दमामाहरणीय-पडिरुद्ध एक मरी गगय पडिबद्ध" 'मिथ्याष्टि' और 'मिथ्यात्वी' शब्दांक प्रथम अन्तर -महापुराण, मांध ११ उपस्थित कर रह है और यह उनके आगमज्ञानके वास्तवम व ही मियादीष्ट ममवसरणम नहीं दिवालियपनको भी सूचित करता है । क्योंकि आगम जा पाते है जो अभव्य हान है-भव्य मिथ्याट्रि में कहीं भी गमा विधान नहीं है जिसके अनुमार नो अमन्याने जाने है और उनमम अधिकांश ममा मिथ्या दृष्टियों नथा मशयज्ञानियोका सम- सम्यग्दृष्टि होकर निकलने हैं-और इम लिय वमरगणमे जाना वजिन ठहराया गया हो। बल्कि मिथ्याष्टि' नथा 'अभव्याऽपि' पदांका एक माथ जगह-जगह पर ममवसरणमे भगवानके उपदेशक, अथ किया जाना चाहिये, व नीनी मिलकर एक अनन्तर लागोंके मम्यक्त्व-ग्रहगी अथवा उनके अथके वाचक है और वह अथ है-- 'वह मिध्याष्ट्रि मशयांक उच्छेद होनकी बात कही गई है और जो जो अभव्य भी है। धर्ममग्रहालक उक्त नाकका इम वानका म्प मचक है कि वे लोग नमम पहने मृलनात निलोयपण्णन्नीकी निम्न गाथा है, जिमम
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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