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________________ १८० अनकान्त [ वर्ष ९ 'मिच्छादिट्टिअभव्या' एक पद है और एक ही है ?-और स्वयं ही नहीं बतलाया बल्कि देवोंनेप्रकारके व्यक्तियोंका वाचक है अहन्तों तथा गणधरोंने-बतलाया है ऐसा स्पष्ट मिच्छाइटिअभव्या तेसुमसरणी ण होति कइआई। निर्देश किया हैतद्द य अणज्मवसाया मंदिद्धा विविविवरीदा।। "व्रतस्थमपि चाण्डालं तदेवा ब्राह्मणं विदुः।"५१-२०३ ४-९३२॥ ऐसी हालतमे उन चाण्डालोंको समवमरणमे इसी तरह 'मदिग्धः' पद भी मशयज्ञानीका जानसे कौन रोक सकता है ? ब्राह्मण हानसं उनका वाचक नहीं है-मशयज्ञानी तो असंख्याते मम- दर्जा तो शटोंमें भी ऊँचा होगया। वसरणमे जाते हैं और अधिकांश अपनी अपनी . | और स्वामी ममन्तभद्रने तो रनकरण्डश्रावकाशताओंका निरसन करके बाहर आते है-बल्कि चार (पद्य २८) मे अवता चाण्डाल को भी सम्यग्दशनउन मुश्तभा प्राणियोंका वाचक है जो बाह्यवषादिक से सम्पन्न होनपर 'देव' कह दिया है और उन्होंने कारण अपने विषयम शङ्कनीय हात है अथवा कपट- भी स्वय नहीं कहा बल्कि देवान वैसा कहा है ऐसा वषादिक कारण दूसरकि लिय भयङ्कर (danger- देवा देवं विदः इन शब्दांक द्वारा स्पष्ट निर्देश किया ous, risky) हुआ करते है। ऐसे प्राणी भी सम है। तब उस देव चाण्डालको समवसरणम जान यसरण-सभाके किसी कोठेम विद्यमान नही होते है। कौन रोक सकता है, जिसे मानव हानक अतिरिक्त तीसरे नम्बरपर अध्यापकजीन सम्पादक जैन दवका भी दर्जा मिल गया? मित्रजीका एक वाक्य निम्न प्रकारसे उद्धन किया है-- इसके सिवाय, म्लन्छ देशीम उत्पन्न हा म्लेच्छ ___"समांशरणम मानवमात्रके लिये जानेका पूर्ण अधिकार है चाहे वह किसी भी वर्णका अर्थात जाति मनुष्य भी मकल मंयम (महाव्रत) धारमा करके जैन मुनि हो सकते है एमा श्रीवीरसेनाचायन जयधवला का चाण्डाल ही क्यों न हो।" टीकाम और श्रीनामचन्द्राचाय (द्वितीय) ने लब्धिमार इमपर टीका करते हुए अध्यापकजीने केवल गाथा १९३की टीकाम व्यक्त किया है । तब उन इतना ही लिखा है-"मम्पादक जैनमित्रजी अपनसे मुनियोको ममवमरणम जानम कौन रोक मकना है ? विरुद्ध विचारवालको पोंगाप-थी बतलाते है। और वती गन्धकुटीक पाम मबम प्रधान गगाधर-मुनिअपने लेख द्वारा समांशरणम चाण्डालको भी प्रवेश करते हैं । बलिहारी आपकी बुद्धिकी।" काठम बैठंग, उनके लिये दूमग काइ स्थान ही नहीं है। इमसे सम्पादक जैनमित्रजी बहुत मस्ते छूट एसी स्थितिम अध्यापक जी किम किम आचार्यगये हैं । निसन्देह उन्होंने बडा ग़जब किया जा की बुद्धिपर 'बलिहारी हगि इममता बहतर यही अध्यापकजी जैसे विरुद्ध विचारवालांकी पांगापन्थी' है कि वे अपनी ही बुद्धिपर बलिहारी होजाएँ और बतला दिया । परन्तु अपने गमकी गयमे अध्यापक ऐमी अज्ञानतामूलक, उपहामजनक एव आगमविरुद्ध जीन उसमें भी कहीं ज्यादा राज्य किया है जो मम व्यर्थकी प्रवृत्तियोंस बाज आएँ । बसरणम चाण्डालको भी प्रवेश करने वालेकी वीरमेवामन्दिर, मरसावा बुद्धिपर 'बलिहारी' कह दिया । क्योंकि पापराणक ता० २-६-१६४८ जुगलकिशार मुख्तार कर्ता श्रीविषेणार्यने प्रती चाण्डालको भी ब्राह्मण १ देखो, उक्त टीकाएँ तथा 'भगवान महावीर पोर उनका बनलाया है- दमो मनशनादिकोंकी तो बात ही क्या ममय' नामक पुस्तक पृ० २६
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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