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व जीका हालका एक आध्यात्मिक पत्र
श्रीयुत् लाला जिनेश्वरदामजी (महारनपुर) योग्य-- किया जाता है वह समय स्वात्म-चिन्तन
आपका पत्र श्रीभगत जी के पास आया- स्वाध्यायका यही मर्म है। मेरी तो यह मम्मति है समाचार जानकर आश्चर्य हुश्रा । इतनी व्यप्रताकी जो काम करो अपना हितका अंश पहले देखो।
आवश्यकता नही । यहाँ कोई प्रकार की असुविधा यदि उसमे आत्महित न हो तब चाहे श्रीभगवतका नही । संसारमे पुण्य-पापकं अनुकूल मर्वसामग्री अर्चन हो और चाहे मसार-सम्बन्धी कार्य हो, स्वयमेव मिल जाती है और यह जो मामग्री है सो करनेकी आवश्यकता नही । जिस कार्य करनेसे कुछ कल्याण-मागकी माधक नही, कल्याण-मागकी आत्मलाभ न हो वह कार्य करना व्यर्थ है। सम्यग्दृष्टि साधक तो अन्तरङ्गकी निमलता है, जहाँ परसं भगवत-अर्चा करता है वहाँ उसे अशुभोपयोगका तटस्थता है। तटस्थता ही ममार-बन्धनको पैनी निवृत्तिसं शान्ति मिलती है । शुभोपयोगका ती छैनी है । न तो ममार अपना बुग करने वाला है शान्तिका बाधक ही मानता है, परन्तु क्या करै मोहऔर न कोई महापुरुष हमारा कल्याणका जनक है। के उदयमे उसे करना पड़ता है, यह तो शुभोपयोगकी हमने आजतक अपनको न जाना और न जाननेका बान रही । जिस समय उसकी विषयादिमे प्रवृत्ति प्रयत्न है, कंवल परकं व्यामोहमे पड़कर इस अनन्त होती है उस समय उस कार्यको वेदनाका इलाज मसारके पात्र बने । अत: अब इस पगधीनताको ममझकर करता है और जैसे कड़वी औषध पीकर त्यागी, केवल अपनको बनाओ । जहाँ आत्मा केवल गंगी रोगको दूर करता है तब विचारो रोगीका बन जावेगी, बम मर्व आपत्तियांका अन्त हो कड़वी औषधसं प्रेम है या रोग-निवृत्तिसे । एव उम जावेगा। यह भावना त्यागी -जो हममे पगपकार ज्ञानीकी दशा है जो चारित्र-मोहके उदयमें विषयहोता है या पम्मे हमाग उपकार होता है। न तो सेवन करता है । यद्यपि बहुनसे मनुष्य इस मर्मको कोई उपकारक है और न अपकारक है । जैसे न ममझ, परन्तु जिनने शास्त्रका मम जाना है उन्हें चिडिया जालमे फम जाती है इमीनरह हम भी तो इसे ममझना कोई कठिन नहीं । अन आप इम इनके द्वारा कल्याण होगा-इम व्यःमोहम परके ओर की चिन्ताको छोड़कर स्वाध्यायम मलग्न गहए। जालम फंस जाते है, नाना प्रकारकी चेष्ट्राएं कर विशेष क्या लिखे, हम म्वय इस जालम प्रागर परको प्रसन्न करना चाहते है। प्रथम नो वह हमारे अन्यथा आपको पत्र लिखनेकी ही क्या आवश्यकता अधीन नहीं और न उसका परिणमन हमार अधीन थी। आपके परिणमनकं हम स्वामी नहीं, व्यर्थ ही है। थोड़े ममयको कल्पना करो, उसका परिणमन चेष्टा कर रहे है, जा आप या करो। हमारे अनुकूल हो भी गया नब उम परिणमनम हम नोट- -मैन तो अन्तरगसे यह निश्चय कर क्या लाभ ? हमारा लाभ और अलाभ हमारे लिया जा आपकी प्रवृत्ति हमारे अनुकूल न हर्ट और परिगामनके अधीन है। अनः कल्यागाकी श्राकांक्षा है न है और न होगी। एवं मेरी भी यही दशा है जो नब इन भाग्शः विकल्पजालोंको त्यागी, जिम दिन आपके अनुकूल न हूँ और न था और न हूँगा। यह परिणमन होगा, स्वयमेव कल्याण हो जावेगा। इमी प्रकार मर्व मंसारकी जानना। समयानुकूल जो हावं मोहोन दा, किमी अधीन
आ शु चि मन रहीं। अपने आपको श्राप ममझो, परकी चिन्ता
गणेशप्रमाद वर्णी त्यागी । और जो ममय इन पत्रांक लिम्बनमें व्यय (वैमशाग्यमुदि)