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________________ अनेकान्त [वर्ष ९ अनुवादकको भारी भ्रान्ति हुई जान पड़ती है। ग्वाता लतावनं माल वनानां च चतुष्टयम ॥१८॥ 'परियन्ति' वतमानकाल-सम्बन्धी बहुवचनान्त पद द्वितीयमालमुत्क्रम्य ध्वजान्कल्पद्रमावलिम् । है, जिसका अर्थ होता है 'प्रदक्षिणा करते है' -- न कि स्तूपान्प्रासादमालां च पश्यन विस्मयमाप सः ॥१७॥ 'प्रदक्षिणापूर्वक नमस्कार करते थे। और 'वहिस्ततः' ततो दौवारिकैर्देवैः सम्भ्राद्भिः प्रवेशित: । का अर्थ है उमके बाहर । उसके किमके ? समवमरण श्रीमण्डपम्य वैदग्धीं सोऽपश्यत्म्वजित्वरीम ॥१३॥ के नहीं बल्कि उम श्रीमण्डपकं बाहर जिसे पूर्ववती ततः प्रदक्षिणीकुर्वन्धर्मचक्रचतुष्टयम् । श्लोक 'म 'अन्त:' पदकं द्वारा उल्लेखित किया है, जहाँ लक्ष्मीवान्पूजयामाम प्राप्य प्रथमपीठिकाम् ॥१९॥ भगवानकी गन्धकुटी होती है और जहाँ चक्रपीठपर तता द्वितीयपीठस्थान विभोरष्टौ महाध्वजान । चढ़कर उत्तम भक्तजन भगवानकी तीन वार प्रर्दाक्षणा सोऽचयामास मम्प्रीत पुतैगन्धादिवस्तुभिः ॥२०॥ करते है, अपना शक्ति तथा विभवके अनुरूप यथेष्ट मध्ये गन्धकुटीद्धद्धि पराये हरिविष्टरे । पूजा करते हैं, वन्दना करते है और फिर हाथ जोड़े आर फिर हाथ जाड़ उदयाचलमधथमिवाकै जिनमैक्ष्यत ॥१॥ हुए अपना-अपनी मापानामे उतर कर आनन्दके साथ -आदिपुराण पर्व २४ यथा स्थान बैठते है। और जिसका वर्णन आगेक इन मब प्रमागोंकी रोशनीमे 'वहिम्तत" पदोका निम्न पदयाम दिया है... वाच्य श्रीमण्डपका बाह्य प्रदेश ही हो सकता हैक्षत्रचामरभृङ्गादावहाय जयाजिरे । ममवमरगाका बाह्य प्रदेश नहीं. जो कि पूर्वाऽपर अाग्नुगनाः कृत्वा विशन्न्यजलिमीश्वगः ॥१७४|| कथनाक विरुद्ध पडता है। और इस लिये प. गजाप्रविश्य विधिवद्भक्तया प्रणम्य मणिमीलया । धरलालजीन १७वं पद्यम प्रयुक्त हुए 'अन्न ' पदका चक्रपीठ ममामा परियन्ति निरीश्वरम ॥१७५।। अर्थ "ममवमरगामे" और १७:वे पटाम प्रयुक्त पूजयन्तो यथाकाम म्यशक्तिविभवाचनै । 'वहिम्तन' पदाका अर्थ 'ममवमरणकं बाहर' करके सुगऽसुरनरेन्द्रादा नामादश(?) नन्ति च ॥१७६।। भाग भूल की है। अध्यापकजीन विवेकम काम न ततोऽवतीय मोपान व स्व म्वाञ्जलि मौलय. । लेकर अन्धानुमग्णके रुपमे उस अपनाया है और गेमाचव्यक्तह पनि यथाम्थान ममाम् ॥१७७) इमलिय वे भी उस भूलके शिकार हुए है। उन्हें अब - हरिवशपुगण मग ५७ ममझ लेना चाहिये कि हग्विशपुराणका जो पदा इन पद्यांक माथमे आदि पुराणके निम्न पद्योंको उन्होंने प्रमाणम उपस्थिन किया है वह ममवमरणमे भी ध्यान रखना चाहिये, जिनम भरतचक्रवर्तीक दादिकोंक जानका निपंधक नही है बल्कि उनके समवमरणस्थित श्रीमण्डप-प्रवेश आदिका वर्णन जानका स्पष्ट सूचक है, क्योंकि वह उनके लिये ममहै और जिनपरसे सक्षेपमे यह जाना जाता है कि वसरणमे श्रीमण्डपके बाहर प्रदक्षिणा - विधिका मानम्तम्भोंको आदि लेकर ममवसरणकी कितनी विधायक है। माथ ही यह भी ममझ लेना चाहिये भूमि और कितनी रचनाओका उल्ललन करनेके कि 'शदाः' पदके माथम जो 'विकुवाणा:' विशेपण बाद अन्तःप्रवेशकी नौबत आती है, और इस लिये लगा हुआ है वह उन शुद्रोंके अमन शूद्र होनेका अन्तःप्रवेशका आशय श्रीमण्डप-प्रवेशसे है, जहाँ सूचक है जो खोटे अथवा नीचकर्म किया करते चक्रपीठादिके साथ गन्धकुटी होती है, न कि मम- है. और इसलिय सतशद्रोंसे इस प्रदक्षिणा-विधिका वमरण-प्रवेशमे: सम्बन्ध नही है-वे अपनी रूचि तथा भक्तिके परीत्य पूजयन्मानस्तम्भानत्यत्ततः परम । अनुरूप श्रीमण्डपके भीतर जाकर गन्धकुटीक पाससे १ प्रादक्षिण्येन वन्दित्वा मानम्तम्भमनादितः । भी प्रदक्षिणा कर मकते हैं। प्रदक्षिणाके ममउत्तमाः प्रविशन्त्यन्तरुत्तमाहितभक्तयः ॥ १७२।। वमरणमे दो ही प्रधान मार्ग नियत होत हैं
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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