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किर गा५]
समवमरणम शूद्रोका प्रवेश
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अधिकारीको उसका अधिकार दिलाकर अथवा स्पष्टतया कोई निषेध नही है, जिसकी अध्यापकजीने अधिकारी घोषित करके पुण्यका ही कार्य किया है। अपने चैलेखमे घोषणा की है। मालूम होता है अध्यापकजी अपने विषयमे सोच कि वे जैनी अध्यापकजीको ५० गजाधरलालजीके गलत अनुवाद दस्माओं नथा शूद्रोंके मर्व माधारगण नित्यपृजनके अथवा अर्थपरसे कुछ भ्रम होगया है, उन्होंने ग्रन्थक अधिकारको भी छीनकर कौनमें पापका उपार्जन कर पूर्वाऽपर मन्दर्भपरसे उसकी जाँच नहीं की अथवा रहे है और उम पापफलसं अपनको कैसे बचा अर्थको अपने विचारोंके अनुकूल पाकर उसे जाँचने मकंगे जो कुन्दकुन्दाचार्यकी उक्त गाथाम तय, कुष्ठ, की जरूरत नही मममी, और यही सम्भवतः उनकी शूल, रक्तविकार, भगन्दर, जलोदर, नेत्रपीड़ा, भ्रान्ति, मिथ्या धारणा एय अन्यथा प्रवृत्तिका मूल है। शिगवंदना, शीत-उष्णक अाताप और (कुयोनियों- ५० गजाधरलालजीका हरिवशपुराणका अनुवाद म) परिभ्रमण आदिके रूपमे वणित है।
साधारण चलता हुश्रा अनुवाद है, इमीसं अनेक पाँचवे, हग्विशपुगरणका जो श्लोक प्रमाणम स्थलोपर बहत कुछ बोलत और प्रत्य-गौरवक उद्धत किया गया है वह अध्यापकजीको मृचनानुमार अनुरूप नही है। उन्होंन अनवादसे पहले कभी इम न तो ५५वे मगका है और न १९८व नवम्बरका, प्रन्थका स्वाध्याय तक नहीं किया था, माध। मादा बल्कि वे मगका १७७वा शोक है। उद्धृत भी वह पुराण ग्रन्थ समझकर ही वे इमक अनुवादम प्रवृत्त गलतरूपम किया गया है, उसका पूर्वाध तो मुद्रित होगये थे और इसमें उनगनर कितनी ही कठिनाइयाँ प्रतिम जैसा अशुद्ध छपा है प्राय वैमा ही रख दिया मलकर 'यथा कञ्चन' पमं व इम पूग कर पाय गया है। और उत्तराध कुछ बदला हुआ मातृम हाना , इमका उल्लम्ब उन्होंने स्वय अपनी प्रत वना है। मुद्रित पनिम वह विकलॉगद्रियादभ्रांना परियति (पृ. ४) में किया है और अपनी त्रुटियों तथा वहिम्तन." इम पम छपा है,जा प्रायः ठीक है, परन्तु अशुद्धियांक आभामको मा माथम व्यक्त किया है। अध्यापकजीन उम अपन चैलेञ्जमे "विकलांगेन्द्रिया- इम भाकक अनुवाद परमं ही पाठक इम विषयका नाना पारियत्ति वहिम्तता" यह रूप दिया है, जिमग कितना ही अनुभव प्रान कर मकंग। उनका वह 'ज्ञाता', 'पारियत्ति' और 'नना' ये तीन शब्द अशुद्ध अनुवाद, जिम अध्यापकजान चलेनमें उद्धत किया है और शोकम अथभ्रम पैदा करते है। यदि यह है, इस प्रकार है . कप अध्यापकजीका दिया हश्रा न हाकर प्रेसकी किमीजा मनुष्य पापी नीचकम करन वाले शुद गलनीका परिणाम है नी अध्यापकजीको चैलेखका पाखण्डी विकलांग और विकलन्द्रियहांन बममाअङ्ग होनकं कारण उमं अगले अङ्गमे सुधारना शरणाकं बाहर ही रहने और वहम ही प्रदक्षिणा चाहिये था अथवा कममं कम सुधारशिरोमणिक पर्वक नमस्कार करते थे " पास तो अपने चैलञ्जकी एक शुद्ध कापी भेजनी
इममे 'उदभ्रान्ता' पदका अनुवाद तो बिल्कुल चाहिये थी; परन्तु चैलेञ्जकं नामपर यदि यो ही वाह
ही छूट गया है, 'पापशीला'का अनुवाद 'पापी' तथा वाही लूटनी हो तो फिर ऐमी बातोंकी तरफ ध्यान ।
_ 'पाबण्डपाटवा.'का अनुवाद 'पाम्बएडी' दोनो ही तथा उनके लिये परिश्रम भी कौन करे ? भन्तु, अपण तथा गौरवहीन है और "समाशरणके बाहर उक्त श्लोक अपने शुद्धरूपम इम प्रकार है :
ही रहते और वहाँम ही प्रदक्षिणापूर्वक नमस्कार पापशीला विकुर्वाणाः शूद्राः पाखण्ड-पाटवाः ।।
करते थे" इम अथकं वाचक मूलम कोई पद ही नहीं विकलागेन्द्रियोद्घान्ता परियन्ति वहिम्तन. ॥१७३।।
है, भूतकालकी क्रियाका बाधा भी काई पद नहीं है, इममे शूद्रोंक ममवसरणम जानका कहीं भी फिर भी अपनी तरफम इम अथकी कल्पना करली यथा---"पापशीला. विकागणाः शूद्राः पावराड पाडवाः” गई है अथवा परियान्त बहिम्तत' इन शब्दापरम