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अनकान्त
[वर्ष ५
सम्बन्धी काई स्पष्ट उल्लेख अथवा विधि-निपंध. इतना ही नहीं बल्कि श्रावकका ऊँचा दर्जा ११वी परक वाक्य ही नहीं सबमे ग्रन्थोंक आधारपर चैलज प्रतिमा तक धारण कर मकते हैं और ऊँचे दर्जेके की बात करना चैलजकी कोगे विडम्बना नहीं तो नित्यपूजक भी हो सकते हैं। श्रीकुन्दकुन्दाचार्यके और क्या है ? इम नरहके तो पूजनादि अनेक शब्दोंमे 'दान और पुजा श्रावकके मुख्य धर्म है, इन विषयोंके मैकड़ों चैलेज अध्यापकजीको तत्त्वार्थ- दोनों विना कोई श्रावक होता ही नहीं, ('दाणं पूजा मृत्रादि से ग्रन्थों को लेकर दिये जा सकते है जिनमे मुक्ग्य मावयधम्मो ण मावगी तेण विणा') और शूद्र उन विपयोंका विधि या निषेध कछ भी नहीं है। नथा दम्मा दोनों जैनी तथा श्रावक भी होते है तब परन्तु मं चैलजोका कोई मूल्य नहीं होता, और वे पूजनके अधिकारसे कैसे वश्चित किये जामकते है? इमीम अध्यापकजीका चैलेंज विद्वपिम उपेक्षणीय नहीं किये जा सकते। उन्हे पृजनाधिकाग्मे वश्चित ही नहीं किन्तु गहनीय भी है।
करनेवाला अथवा उनके पूजनमे अन्तगय (विघ्न) तीमा, अध्यापकजीका यह लिखना कि "यदि डालनेवाला घोर पापका भागी होता है, जिसका श्राप इन ऐतिहामिक ग्रन्थों द्वारा शूद्रांका ममोशरण- कुछ उल्लेख कुन्दकुन्द की रयणमारगत 'खय कुट्र-मूलमें जाना सिद्ध नहीं कर मकं तो दम्माांक पूजना- मृलो' नामकी गाथासे जाना जाता है। इन मब धिकारका कहना आपका मर्वथा व्यर्थ सिद्ध हो विषयों के प्रमाणांका काफी मकलन और विवेचन जायगा" और भी विडम्बनामात्र है और उनके जिनपूजाधिकारमीमामा' में किया गया है और उनअनोग्य तक नथा अद्भत न्यायको व्यक्त करता है। में आदिपुगग तथा धर्ममग्रह श्रावकाचारकं प्रमाण क्योंकि शूद्रांका यदि ममवमरणम जाना मिद्ध न भी मगृहीत है। उन मब प्रमाणों तथा विवंचनी किया जामकं ना उन्हीक जनाधिकारको व्यर्थ और पूजन-विषयक जैन सिद्धान्तका नरफमे श्राग्य ठहराना था न कि दम्माओक, जिनके विषयका बन्द करक इस प्रकारक चैलेजकी योजना करना कोई प्रमाण मांगा ही नहीं गया ' यह ना वह बात अध्यापकजीक एकमात्र कौटिल्यका द्योतक है । याद हुई कि मबून किमीविषयका और निणय किमी दूसरे ही कोई उनकी इम नकपद्धतिका अपनाकर उन्हींम विषयका 'माजजीपर किम तम अथवा हम नहीं उलटकर यह कहन लगे कि 'महागज, आप ही इन भाएगा और वह किमकं कौतुकका विषय नहीबनगी" आदिपुरागा तथा उनरपुराणक द्वारा शूद्रोंका मम
यदि यह कहा जाय कि शुद्रांक पूजनाधि- वमरणम जाना निषिद्ध मिद्ध कीजिये, यदि श्राप काग्पर ही दम्माांका पजनाधिकार अवलम्बित है एसा सिद्ध नहीं कर सकेगे तो दम्माओके पजना- उनके ममानधर्मा है तो फिर शुद्रांक स्पष्ट धिकारको निषिद्ध कहना श्रापका मर्वथा व्यर्थ सिद्ध पूजनाधिकार सम्बन्धी कथनों अथवा विधि-विधानी
हो जायगा' तो इमसे अध्यापकजीपर कैमी बीतेगी, का ही क्यों नहीं लिया जाता ? और क्यों उन्हें छोड इसे वे स्वयं समझ सकेगे । उनका तक उन्हीं के गलेकर शुद्रांक समवसरणमे जाने न जानकी बातका का हार हो जायेगा और उन्हें कुछ भी उत्तर देते बन व्यर्थ उठाया जाता है? जैन शास्त्रांम शुदोंके द्वारा नहीं पडेगा; क्योंकि उक्त दोनों ग्रन्थोंके आधारपर पूजनका और उम पजनक उत्तम फलकी कथाएँ ही प्रकृत विषयके निणयकी बातको उन्हींने उठाया है नहीं मिलती बल्कि शुद्राको स्पष्ट तौरस नित्यपूजनका और उनमे उनके अनुकुल कुछ भी नहीं है। अधिकारी घोषित किया गया है। साथ ही जैनगृहस्थों, चौथे, 'उम पापका भागी कौन होगा' यह जो अविरत-मम्याटियों, पाक्षिक श्रावकों और व्रती अप्रासङ्गिक प्रश्न उठाया गया है वह अध्यापकजीकी श्रावकों सभीको जिनपुजाका अधिकारी बतलाया हिमाकतका द्योतक है। व्याकरणाचायजीन नो गया है और शुद्र भी इन मभी कोटियोंमे आते है, आगमके विरुद्ध कोई उपदेश नहीं दिया, उन्होंने तो