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________________ अनेकान्त [ वर्ष यिक सत्शिक्षा और सदुपदेशोसे सुमार्गपर लाकर १-आहारदान और औषधिदान उन्हें उत्थान पथका पथिक बनाना चाहिए । शक्ति जो मनुष्य क्षुधासे क्षामकुक्षि एवं जर्जर होरहा है. होते हुए भी यदि उसका विनियोग न किया जावे तो तथा रोगसे पीडित है। सबसे प्रथम उसके क्षुधा एक प्रकारका घातकीपन है। श्रेणीके पहले मुनि श्रादि रोगोंको भोजन औषधि देकर निवृत्त करना लोगोंकी भी भावना मंसारके उद्धारकी रहती है। चाहिए । आवश्यकता इसी बातकी है। क्योंकि जो मनुष्य दयाके कार्योंको नहीं करते वे भयङ्कर पाप "बुभुक्षितः किं न करोति पापं” (भूम्या आदमी कौनकरनेवाले हैं। अतएव यथाशक्ति दुःखियोंके दुःख सा पाप नहीं करता) इससे किसी कविने कहा है कि दर करनेका यन्त्र प्रत्येक मनुष्यको करना चाहिए। "शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधन" तथा शरीरके नीरोग बहुतसे भाइयांकी ऐमी धारणा होगई कि पात्रोके बिना रहने पर बुद्धिका विकाश होता है; तदुक्तं- 'स्वस्थदान देना केवल पापबन्धका करने वाला है। उन्हें चित्त बुद्धयः प्रस्फुरन्ति” तथा ज्ञान और धमके अर्जन इन पं. राजमल्लके वाक्योंका स्मरण करना चाहिए:- का यत्न होता है। शरीरके नीरोग न रहनेपर विद्या दानं चतुर्विधं देयं, पात्रबुद्ध्याथ श्रद्धया । और धर्मकी चि मन्द पड़ जाती है अतएव अन्नजघन्यमध्यमोत्कृष्टपात्रेभ्यः श्रावकोत्तमैः॥ जल आदि औषधि द्वारा दुःखसे दु:वी प्राणियोके सुपात्रायाप्यपात्राय, दानं देयं यथोचितम् । दुःखका अपहरण करके उन्हें ज्ञानादिके अभ्यासमें पात्रबुद्ध्या निषिद्ध स्या-निषिद्धनं कृपाधिया। लगानेका यन्त्र प्रत्येक प्राणीका मुख्य कर्तव्य होना शेषोभ्यः क्षत्पिपासादि पीडितेभ्यो शभोदयात् । चाहिए। जिससे ज्ञान द्वारा वह यथार्थवस्तुका जान दीनेभ्योऽभयदानादि, दातव्यं करुणार्णवः॥ कर प्राणी इस संसारके जालमें न फंसे। (पञ्चाध्यायी ... ... " तृतीय श्रेणीके मनुष्य जो कुमार्गके पथिक होचुके ज्ञानदान हैं, तथा जिनकी अधम स्थिति होचुकी है वह भी 'अन्नदानकी अपेक्षा विद्यादान अत्यन्त उत्तम दयाके पात्र हैं। उनको दुष्ट आदि शब्दोंसे व्यवहार है। क्योंकि अन्नसे प्राणिकी क्षणिक तृप्ति होती है कर छोड़ देनेसे कार्य नहीं चलेगा। किन्तु उन्हें भी किन्तु विद्यादानसे शास्वती तृप्ति होती है। सन्मार्गपर लगानेका प्रयत्न करना चाहिए। जैनधर्म विद्याविलासियोको एक अद्भुत मानसिक सुख तो प्राणिमात्रके हितका कर्ता है सूकर, सिंह, नकुल, होता है. इन्द्रियोंके विलासियोंकों वह सुख अत्यन्त बानर तक जीवोको उपदेशका पात्र इसके द्वारा हा दुलभ है क्योकि वह सुख स्व-स्वभावोत्थ है जब कि मनुष्योंकी कथा तो दूर रही। तथा श्री विद्यानन्दिने इन्द्रियजन्य सुख पर जन्य है। भी कहा है कि जो दुष्ट और असदाचारी हैं वह अभयदान सद्धर्मको न जानकर इस उदाहरणके जालमें फँस गये इसी तरह अभयदान भी एक दान है. यह भी हैं। अतएव ऐसे जो प्राणी है वह धिक्कारके पात्र नहीं बड़ा महत्वशाली दान है। इसका कारण यह है कि प्रत्युत आपके द्वारा दयाके पात्र हैं। उनके ऊपर मनुष्यमात्रको ही नहीं, अपितु प्राणीमात्रको अपने . अत्यन्त सोम्यभाव रखते हुए सम्यगुपदेशों द्वारा शरीरसे प्रेम होता है। बाल हो अथवा युवा हो, उन्हें सन्मार्गपर लगाना प्रत्यक दयाशील मनुष्यका आहोस्वित् . वृद्ध हो, परन्तु मरना किसीको इष्ट नहीं। कर्तव्य है। मरते हुए प्राणिकी अभयदानसे रक्षा करना बड़े ही दानके भेद महत्व और शुभबन्धका कारण है। ऐसी रक्षा करने इस दानके प्राचार्योंने संक्षेपसे ४ भेद बतलाये १ अन्नदान पर दान विद्यादानमतः परम् । हैं। (१) आहार (२) औषध (३) अभय (1) ज्ञान। अन्नन क्षणिका तृप्तिर्याजीवं तु विद्यया ।
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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