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________________ दान- विचार (लेखक-श्रीक्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी, न्यायाचार्य) हमारी समाजमें दान करनेकी प्रथा है। किन्तु दान क्या पदार्थ है इसके करनेकी क्या विधि है प्रायः इसमें विषमता देखी जाती है । अतः मैं इसपर कुछ अपने विचार प्रकट करता है। [वि. नरेन्द्र जैन काशी गत ग्रीष्मावकाशमें सागर गये थे । वहाँ पूज्य वर्णीजीके पुराने कागजोंके ढेरमे उन्हें वर्णीजीके ४, ६ महत्वपूर्ण लेख मिले हैं। यह बहुमूल्य लेख उन्हीं लेखोंमेसे एक है। यद्यपि यह लेख २७ वर्ष पहले लिखा गया था और इमलिये प्राचीन है तथापि उसमें पाठकोंके लिये आधुनिक नये विचार मिलेंगे और दानके विषयमें कितनी समस्याओंका हल तथा समाजमे चल रही अन्धाधुन्ध दान-प्रवृत्तियोंका उचित मार्ग दर्शन मिलेगा । वास्तवमे 'क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः के अनुमार यह लेख प्राचीनतामें भी नवीनताको लिये हुए है और इस लिये अपूर्व एवं सुन्दर है। उसे वि. नरेन्द्रने अपने अनेकान्तमें प्रकाशनार्थ भेजा है। अतः मधन्यवाद यहाँ दिया जाता है । देखें, समाज अागामी पयूपणपर्वमें, जो बिल्कुल नजदीक है और जिसमें मुख्यतः दान किया जाता हैं, अपनी दान प्रवृत्तिको कहाँ तक बदलती है ? --कोठिया दानकी आवश्यकता पात्र मनुष्योंकी तीन श्रोणियां द्रव्य प्रिसे जब हम अन्तःकरणमे परामर्श करते . १-इस जगतमें अनेक प्रकारके मनुष्य देखे जाते है तब यही प्रतीत होता है कि सब जीव समान है। । । है. कुछ मनुष्य तो ऐसे हैं जो जन्मसे ही नीतिशाली इस विचारसे समानतारुपमे तो दानकी आवश्यकता और धनाढ्य हैं। नहीं, किन्तु पर्यायदृष्टिसे सर्व श्रात्माएँ विभिन्न-विभिन्न -कुछ मनुष्य ऐसे हैं जो दरिद्रकुलमें उत्पन्न पर्यायामें स्थित है। कितनी ही श्रात्माएँ तो कर्मकलङ्क- " हुए हैं। उन्हें शिक्षा पानेका, नीतिके, सिद्धान्तोके उन्मुक्त हो मर्व अनन्तसुग्वके पात्र होचुकी हैं। कितने __ समझनेका अवसर ही नहीं मिलता। ही प्राणी मुग्वी देवे जाते हैं। और कितने ही दुखी ३-कुछ मानवगण से हैं जिनका जन्म तो देग्वे जाते हैं। बहुनसे अनेक विद्याके पारगामी विद्वान उत्तम कुलमे हुआ है किन्तु कुत्सित पाचरणांके है। और बहुतमे नितान्त मूर्व दृष्टिगोचर होरहे है। कारण अधम अवस्थामे काल-यापन कर रहे हैं। बहुतमे सदाचारी और पापसे परामुग्व हैं. तब बहुत इनके प्रति हमारा कर्तव्य से असदाचारी और पापमें तन्मय है । कितने ही जोधनवान तथा मदाचारी हैं अर्थात प्रथमश्रेणीबलिष्टताके मदमे उन्मत्त है, तब बहुतसे दुर्बलतासे के मनुष्य है उन्हें देखकर हमको प्रसन्न होना चाहिए। हाकर दुखभार वहन कर रह है। अतएव तदुक्त-गुणिषु प्रमादम" उनके प्रति इप्यादि नहीं आवश्यकता इस बातकी है कि जिमको जिस वस्तुकी करना चाहिए। आवश्यकता हो उसकी पूर्ति कर परोपकार करना द्वितीय श्रेणीके जो दरिद्र मनुष्य हैं उनके कष्टचाहिए । उमाम्वामीने भी कहा है-"परस्परोपग्रहो अपहरणके अर्थ यथाशक्ति दान देना चाहिए । जीवानाम" (जीवाका परस्पर उपकार हुआ करता है)। तदुक्तम्--"परानुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम्” तथा सर्वोत्तम पात्र तो मुनि हैं उनकी शरीरकी स्थितिके उनको सत्य सिद्धान्तोका अध्ययन कराके सन्मार्गपर अर्थ भक्तिपूर्वक दान देना चाहिए। स्थिर करना चाहिए। तृतीय श्रेणीके मनुष्योको साम
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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