SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण ] दान विचार २७१ वाले मनुष्योंको शास्त्रमें परोपकारी, धर्मात्मा आदि दानोंके द्वारा प्राणी कुछ कालके लिये दुःखसे विमुक्तशब्दोसे सम्बोधित कर सम्मानित किया है। सा होजाता है परन्तु यह दान ऐसा अनुपम और धर्मदान महत्वशाली है कि एक बार भी यदि इसका सम्पर्क इस अभय दानसे भी उत्तम धर्मदान है। इस होजावे तो प्राणी जन्म-मरणके क्लेशोंसे विमुक्त होकर परमोत्कृष्ट दानके प्रमुख दानी तीर्थङ्कर महाराज तथा निर्वाणके नित्य आनन्द सुखोका पात्र होजाता है । गणधगदि देव हैं। इसीलिये आपके विशेषगोमें अतएव सभी दानोकी अपेक्षा इस दानकी परमा"मोक्षमार्गस्य नेत्तारम” (मोक्षमार्गके नेता) यह प्रथम वश्यकता है। धर्मदान ही एक ऐसा दान है जो विशेपण दिया गया है। बड़े-बड़े राजा. महाराजा, प्राणियोको मंसार दुःखसे सदाके लिये मुक्तकर सच्चे यहाँ तक कि चक्रवतियाने भी बडे-बडे दान दिय किंत सुग्वका अनुभव कराता है। मंमारमे उनका आज कुछ भी अवशिष्ट नहीं है । तथा अपनी आत्मताडनाकी परवाह न करके दूसरोंके तीर्थकर महाराजने जो उपदेश द्वाग दान दिया था लिय मीठ स्वर सुनाने वाले मृदङ्गकी तरह जो अपने उसके द्वारा बहुतमे जीव तो उमी भवसे मुक्तिलाभ अनेक कष्टोकी परवाह न कर विश्वहितके लिय निरपेक्ष कर चुके और अब तक भी अनेक प्राणी उनके बताये निस्वाथ उपदेश देत है वे महात्मा भी इसी धर्मदानके सन्मागपर चलकर लाभ उठा रहे है। भव-बन्धन कारण जगत पूज्य या विश्ववन्ध हुए है। . परम्पराके पाशसे मुक्त होगे, तथा आगामीकालमे भी जब तक प्राणीको धार्मिक शिक्षा नहीं मिलती तब • उस सुपथपर चलनेवाले उस अनुपम सुखका लाभ तक उसके उच्चतम विचार नहीं होते, और उन विचारो उठावेंगे। कितने प्राणी उस पवित्र धर्मोपदेशसे लाभ के अभावमें वह प्राणी उस शुभाचरणसे दूर रहता है उठावेंगे यह कोई अल्पज्ञानी नहीं कर सकता। जिसके बिना वह लौकिक सुखसे भी वनित रहकर धोबीके कुत्तेकी तरह “घरका न घाटका" कहींका भी धर्मदानके वतेमान दातार नहीं रहता। क्योकि यह सिद्धान्त है कि "वही जीव वर्तमानमे गणधर. आचार्य श्रादि परम्परासे यह , यह सुखी रह सकते हैं जो या तो नितान्त मूर्ख हो. या दान देनेकी योग्यता मंसारसे भयभीत, बाह्याभ्यन्तर परिग्रह विहीन. ज्ञान-ध्यान-तपमें आमक्त, वीतराग, करने वाले हैं वही संसारमे पूज्य और धर्म संस्थापक पारन दिग्गज विद्वान हो।" अतः जो इस दानके दिगम्बर मुनिराजके ही हैं। क्योंकि जब हम स्वय कडे जाते है। विषय कषायोसे दग्ध है तब क्या इस दानका करेंगे। इसी तरह धर्मदानकी महत्ता जानकर हमें उस जो वस्तु अपने पास होती है वही दान दी जासकती दानको प्राप्त करनेका पात्र होना चाहिये। सिंहनीका है। हम लोगोंने तो उस धर्मको जो कि आत्माकी निज दध स्वर्ण के पात्रमें रह सकता है, धर्मदान सम्यग्ज्ञानी परणति है; कषायाग्निसे दग्ध कर रक्खा है। यदि वह पात्रमे रह सकता है। वस्तु आज हमारे पास होती तब हम लोग दु:खोके पात्र न होते । उमके बिना ही आज संमारमे हमारी अवस्था कष्टप्रद होरही है। उस धर्मके धारक परम उक्त दानोके अतिरिक्त लौकिक दान भी महत्वपूर्ण दिगम्बर निरपेक्ष परोपकारी; विश्वहितैपी वीतराग दान है जगतमे जितने प्रकारके दुःख हैं उतने ही भेद ही हैं अतएव वही इस दानको कर सकते हैं । इमीसे लौकिक दानके हो सकते हैं परन्तु मुख्यतया जिनकी उसे गृहस्थदानके अन्तर्गत नहीं किया। आज आवश्यकता है बे इस प्रकार हैंधर्मदानकी महत्ता ___ *यश्च मूढतमो लोके, यश्च बुद्ध: परांगतः । यह दान सभी दानोमें श्रेष्ठतम है, क्योंकि इतर तावुभो सुख मेधेते, क्लिश्यन्तीतरे जनाः ॥ लौकिक दान -..- - - -
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy