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________________ अनेकान्त [वर्ष ९ वासनाओंमें आसक प्राणीको भी यह परमात्मा विशेषताओंके कारण अपने उत्थान और पतनमें होनेकी योग्यता वर्तमान है। परमात्मा हो जानेपर पुद्गल (Matter) को निमित्त कारण-सहायक इच्छाओंका अभाव होजता है और शरीर, मन, बना लेता है। इसलिये जीवके परिणामोंकी प्रेरणासेबचन नहीं रहते जिससे उन्हें किमी भी कामके करने मन, वचन और कायके परिस्पन्दनसे पदलके की चिन्ता नहीं होती है, न किसी कामकी वे परिमाणु अपनी शक्ति विशेषके कारण जीवसे पाकर आज्ञा देते हैं, अतएव जगतकर्तृत्वका प्रसङ्ग इन चिपट जाते हैं, जिससे जीवके स्वाभाविक गुण राग-द्वेषसे रहित स्वतन्त्र परमात्माओंको प्राप्त मलिन होजाते हैं। यह मलिनता सदासे चली प्रारही नहीं होता' है। है, जीव अपने पुरुषार्थ द्वारा इसे अलग कर पर__ यह विश्व सदासे है और सदा रहेगा; (world मात्मा बन जाता ह is eternal) न कभी बना है और न कभी नाश पुदल-यह द्रव्य मूर्तिक है, इसमें रूप, ग्म, होगा। इसमे प्रधानत: जड़ और चेतन दो प्रकारक गन्ध और स्पर्श चार गुण पाये जाते हैं। जितने पदार्थ हैं । इनका कभी नाश नहीं होता है. पदार्थ हमे आँखोंसे दिखलाई पडते हैं वे सब केवल इनकी अवस्थाएँ बदला करती हैं। इस परि- पीगलिक है । इममे मिलने और बिछड़नेकी योग्यता वतेनमे भी कोई बाह्य ईश्वरादि शक्ति कारण नहीं है यह स्कन्ध-पिण्ड और परमाणुके रूपमें पाया हैं; किन्तु षडद्रव्योंका स्वाभाविक परिणमन ही जाता है। शब्द (sound), बन्ध (union), सूक्ष्म कारण है। जैन मान्यतामे जीव, पदल, धर्म, अधर्म, (fineness), स्थूल (grassness), सस्थान-भेदआकाश और काल ये छः द्रव्य मान गये हैं. इन तमच्छाया (shape, division, darkness and द्रव्योंका समवाय-एकीकरण ही लोक है। उन image), उद्योत-श्रातप (lustre heat) ये सब द्रव्योंमे गुण और पर्याय ये दो प्रकारकी शक्तियाँ है। पुद्गल द्रव्यकी पर्यायाएँ (modification) हैं। इसके जो एक द्रव्यको दूसरे द्रव्यसे पृथक करता है उसे अनक भद-प्रभद आर भा अनेक भेद-प्रभेद और भी बताये गये हैं, जिनसे गुण एवं द्रव्योंकी जो अवस्थाएँ बदलती हैं उन्हें जीवोंके प्रायः सभी व्यवहारिक कार्य चलते हैं। पर्याय कहते है। गुण और पर्यायांके कारण ही धर्मद्रव्य'-जैन आम्नायमे इसे पुण्य-पापरूप द्रव्योंकी व्यवस्था होती है। नहीं माना गया है, किन्तु जीवों और पुदलोंके हलनजीव-चैतन्य ज्ञानादि गुणोंका धारी जीव चलनमे बाहिरी सहायता (Assists the moveद्रव्य है। यह अपनी उन्नति और अवनति करनेमे ment of moving) प्रदान करने वाले सूक्ष्म स्वतन्त्र है, किसी के द्वारा शासित नहीं है, इसका अमत्ते पदार्थको धर्मद्रव्य माना है। यह पाते, जाते, विकास अपने हाथोंमे है, इसे स्वतन्त्र होनेके लिये गिरते, पड़ते, हिलते, चलते पदार्थों को उनकी गतिमे किसीके आश्रित रहने की आवश्यकता नहीं। किन्तु मदद करता है, बलपूर्वक किसीको नहीं चलाता, इतनी बात अवश्य है कि जीव अपनी स्वाभाविक किन्तु उदासीनरूपसे चलते हुए पदार्थोंकी गतिमे सहायक होता है। इसका अस्तित्व समस्त लोकमे १ अहविहकम्मवियला सीदीभदा गिरजणा णिच्च । पाया जाता है। अठगुणा किदकिच्चा लोयग्गणिवासिगो सिद्धा ॥ १The Jain philosophers mean by Dha -गो० मा० जी० गा०६८ rama kind of ether, which is the ful २ लोगो अकिट्टिमो खलु श्रणाइ णिहया सहावणिवत्तो।। cruin of Motion, with the help ot जवाजीवेहि फुडो सब्वागामावयवो णिच्चो ॥ Dharam, Pudgala and Jiva move -त्रिलोकसागर गा०४ ---द्रव्यसग्रह पृष्ट ५२
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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