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किरण ५]
जैनधर्म बनाम समाजवाद
अधर्मद्रव्य-यह अमनिक पदार्थ स्थिर होने ममाजमेमे शोषित और शोषक वर्गकी ममाप्ति कर वाले जीव और पुदलोंको स्थिर होनेमे महायता आथिक दृष्टि से ममाजको उन्नत स्तरपर लाते हैं। (ASists the stating ot) करता है। उनका अहिमा-प्रधान जैनधर्ममे समस्त प्राणियोंके माथ अस्तित्व भी समस्त लोकमे पाया जाता है। मैत्रीभाव रखकर ममाजके विकामपर जोर दिया
आकाशद्रव्य-जी सब द्रव्योंको अवकाश- है। मानवकी कोई भी क्रिया केवल अपने स्वार्थकी स्थान (space) देता है उसे आकाशद्रव्य कहते है। पूर्ति के लिये नहीं होनी चाहिये, बल्कि उसे समस्त इसके दो भेद हैं-लोकाकाश और अलोकाकाश । समाजके स्वार्थको ध्यानमे रखकर अपनी प्रवृत्ति अनन्त आकाशक मध्यमे जहाँ तक जीव, पुद्गल, धर्म, करनी चाहियं । इमी कारण समस्त ममाजको सुखी अधर्म पाये जायें उस लोकाकाश' (unserse) बनाने के लिये व्यक्तिसे समाजको अधिक महत्व
और जहाँ केवल आकाशद्रव्य ही हो उसे अलोका- दिया गया है तथा ममाजकी इकाईकं प्रत्येक घटकका काश (non-universe) कहते है।
दायित्व समानरूपमे बताया गया है। कालद्रव्य-जिसके निमित्तसे वस्तुओंकी अव- अपरिग्रहवाद-अपने योगक्षेमके लायक भरणस्थाएँ बदलती हैं उसे कालद्रव्य कहते है।
पोषणकी वस्तुओंको ग्रहण करना तथा परिश्रम कर अभिप्राय यह है कि इन छ: द्रव्यों (Subs. जीवन यापन करना, अन्याय और अत्याचार-द्वारा tences) मे काम करने वाले (Actors) मंमारी
पृञ्जीका अर्जन न करना अपरिग्रह है। शास्त्रीय दृष्टिअशुद्ध जीव और पुद्रल हैं, ये चलना, ठहरना,
से पूर्ण परिग्रहका त्याग तो माधु-अवस्थाम हो स्थान पाना एव बदलना-परिवर्तन ये चार कार्य सम्भव है, किन्तु उपयुक्त परिभाषा गृहस्थ जीवनकी करते रहते है। उनके कार्योमे क्रमशः धमद्रव्य,
दृष्टिस दी गई है। जैन मस्कृतिम परिग्रहपरिमाण'क
माथ भांगोपभोगपरिमाणका भी कथन किया है। अधमद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य निमित्त
जिमका तात्पर्य यह है कि वर, श्राभरण, भाजन, कारण (Authuv cusc) अर्थात महायक होने है। हम प्रकार विश्वकी मारी व्यवस्था बिना किमी
ताम्बूल आदि भोगीपभोगकी वस्तुओक सम्बन्धम प्रधान शामक-ईश्वर कर्ताक सुचारुम्पस बन
" भी ममाजकी परिस्थितिका दबकर उचित नियम जाती है। मभी द्रव्य अपने अपने विशेष गगांक
करना मानवमात्रके लिये श्रावश्यक है । उपर्यत कारण अपने-अपने कार्य को करते रहते है। इन
दोनों नोंक ममन्वयका अभिप्राय यह है कि ममम्त मामारिक कार्याम जीव और पगल उपादान कारण
मानव ममाजकी आर्थिक अवस्थाको उन्नन बनाना। और अन्य द्रव्य निमित्त कारण होते है।
चन्द लोगोंको इस बातका काई अधिकार नहीं कि वे
१ वास्तु नत्र धान्य दामी दामश्चनुप्पट भागहम । आर्थिक दृष्टिकोण
परिमय कर्तव्य म मन्तापकुशलन ।। आर्थिक दृष्टिम ममाजको ममान स्तरपर लाना
-अामतगतिश्रावकाचार पृए १६२ जैनधर्मका एक विशिष्ट मिद्धान्न है। जैन मंग्कृतिके
ममंमिनि मकल्पश्चिदचिन्मिश्रवस्तप । प्रधान अङ्ग अपरिग्रह और मयमवाद ये दोनों ही
अन्यस्तकर्शनात पा र्शन तत्प्रमावतम ।' १ धम्माधम्मा काला पुग्गलजीवा य संति जावटिये ।
-मा० ध० अ०४, श्लोक ५६ आयासे मो लोगो नत्तो परदो अलोगुनो ॥ २ ताबूलगन्धन पनमजनभोजन पुगगमी भागः ।
-द्रव्यमग्रह गा०२० उपभोगी भषास्त्रीशयनासनवम्बयाहाद्याः ।। लोकतीति लोक :--लोकति पश्यत्युपलभते अर्थानिति भोगोपभागसव्या विधीयते शक्तितो गताया। लोकः । -तत्वार्थ गजवार्तिक ५। १२
अमित गतिभावकाचार पृ० १६८