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________________ जैनधर्म बनाम समाजवाद (लेखक-५० नेमिचन्द्र जैन शास्त्री, ज्योतिषाचार्य, माहित्यग्न ) शाजके प्रगतिशील युगमें वे ही शक्तियाँ, सामा- सब श्रात्माओंका स्वभाव एक समान है किन्तु इन जिकप्रथाएँ एवं आचारके नियम जीवित संमारी आत्माओंमे मस्कार-कमजन्य मैल रहता है रह मकते हैं जो लोग समाजको चरम विकासकी जिससे इनके भावोंमे, शरीरकी रचनामे तथा इनके ओर ले जा सकें । जैनधर्मका लक्ष्य विन्दु भी अन्य क्रिया-कलापोंमे अन्तर है । यदि यह मस्कारएकमात्र मानव समाजको आध्यात्मिक, आर्थिक, विषय वामना और कषायोंसे उत्पन्न कमजन्य सामाजिक और राजनैतिक दृष्टिसे विकासकी ओर मलिनता दूर हो जाय तो मबका स्वभाव एक ममान ले जाना है। जैनाचार्योंने जीवन के प्रारम्भिक विन्दुको प्रकट हो जायगा' । उदाहरणके तौरपपर यों कहा (Starting point) उमी स्थानपर रखकर जीवन- जा सकता है कि कई एक जलके भरे हुए घडोम गति रेखाको प्रारम्भ किया है, जहाँसे मानव नाना प्रकारका रङ्ग घोल दिया जाय तो उन घड़ोंका समाज निर्माणका कार्य प्रारम्भ होता है। पानी कसा नही दिखलाई पड़ेगा; रङ्गोंके सम्बन्धसे जिम प्रकार स्वतन्त्रता व्यक्तिवाद (Indivi- नाना प्रकारका मालूम होगा । किन्तु बुद्धि पूर्वक dutlism)की कुञ्जी मानी जाती है, उसी प्रकार विचार करनेसे सभी घड़ोंका पानी एकसा है, केवल समानता समाजवादकी । जैनधर्ममे समस्त जीव- परसंयोगी विकार के कारण उनके जलमे कुछ भिन्नता धारियांको आत्मिक दृष्टिम समानत्वका अधिकार मालूम पड़ता है। अतएव सभा प्राणियोंकी आत्माएँ प्राप्त है । इममे स्वातन्त्र्य को बड़ी महत्ता दी गई है। ममान है-All souls are similar as regards ममारके सभी प्राणियों की आत्माम समानशक्ति है hell true real nature तथा प्रत्येक समारी प्राणाकी आत्मा अपनी भृलसे आध्यात्मिक दृष्टिसे समस्त समाजको एक स्तरपर अवनति और जागम्कनाम उन्नति करती है, इसका लाने के लिये ही सबसे प्रावश्यक यह है कि ममस्त भाग्य किसी ईश्वर विशंपपर निभर नहीं है। प्रत्येक प्राणियोको परमात्मस्वरूप माना जाय । जैनधर्ममे जीवधाराके शरीरमं पृथक पृथक आत्मा होनेपर भी इसीलिय परमात्माकी शक्ति जीवात्मासे अधिक नहीं गग्रस्त हुए तो वह जिनेन्द्र भगवानकी शराम मानी है और न जीवात्मामे भिन्न कोई परमात्मा ही पहुँचे । रोगमुक्त होनेके लिये उन्होंने जिन पूजा की माना है। इस प्रकार परमात्मा एक नहीं, अनेक है। और दान दिया। ऐसे दृढ़ श्रद्धानी यह राजपुरुष थे। जो कपाय और वामनाओस उत्पन्न अशुद्धतासे छूट उनकी धर्म श्रद्धा उन्हें मुखी और सम्पन्न बनानेम कर मुक्त हो जाता है, वही एक ममान गुणधारी कारणभत थी। आजका जगत उनके आदर्शका देव परमात्मा हो जाता है । अल्पशानी एवं विपय. और धर्मक महत्वको पहिचान ना दुग्व-शोय. - नयन्यात्मानमात्मैव जन्मनिर्वाण मेव च । भूल जावे । गुरुगत्मात्मनम्तस्मानान्योऽस्ति परमार्थनः ।। इम प्रकार विजयनगर साम्राज्यके एक जैन --- ममाधिशतक श्लोक ७५ धर्मानुयायी मामन्त राजवशका परिचय है। इनकं २-स्वबुद्धया यावद् गृहीयात् कायवाचेतसा यम । माथ अन्य सामन्तगण भी जिनेन्द्र भक्त थे। उनका ममारस्तावदेतेषां भेदाभ्यामे तु निवृतिः ।। परिचय कभी आगे पाठकों की नजर करेगे। -ममाधिशतक श्लोक ६२
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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