________________
१८८
अनेकान्त
[वर्ष ९
मूर्तियाँ भी उन्होंने निर्माण कराई थीं। नगरमे में उनके शौर्य का विवरण है। उसमें लिखा है कि मनोरम पुष्पवाटिकाएँ (Parks) बनवाकर उन्होंने उन्होंने शौर्य देवताको जीत लिया था । कर्मसूर नगरकी शोभाको बढ़या था और नागरिकोंको होनके साथ वह धर्मसूर भी थे । धर्मकार्य वह सुखसुविधा प्रदान की थी। नागरिक उनमे जाकर निरन्तर करते थे । बिडिरू (वेणुपुर)में वर्द्धमान आनन्दकेलि करते थे । इतनेपर भी सालुवेन्द्रको स्वामीका मन्दिर था । इन्दगरसने उस मन्दिरके इम बातका ध्यान था कि नगरमे धर्ममर्यादा अक्षुण्ण प्राचीन भूमिदानका पुनरुद्धार जैनधर्मको उन्नत रहे। इसीलिये वह मन्दिरोंकी धर्मव्यवस्था ठीक बनाने के लिये किया था। रखने के लिए सतर्क रहते थे। मन्दिरोंमें नियमित सङ्गीतपुरके अवशेष नरेशोंमे सालुब मल्लिराय, धर्म क्रियाएँ होती रहे, इसके लिए उन्होंने दान- सालुब देवराय और सालुब कृष्णदेव जैनधर्मक व्यस्था की थी। देवपूजा, चतुर्विध दान और प्रसङ्गमे उल्लेखनीय है। कृष्णदेवकी माता पद्माम्बा विद्वानोंको निरन्तर वृत्तियाँ दी जाती थीं। सारांश विजयनगर सम्राट् देवराय प्रथमकी बहन थीं। सन् यह कि मालुवेन्द्र नरंशन राजत्वकं आदर्शका १५३० ई के दानपत्रसे स्पष्ट है कि इन तीनों राजाओ निभाया और धर्ममर्यादाको आगे बढ़ाया था । ने प्रमिद्ध जैनगुरु वादी विद्यानन्द को आश्रय दिया
इन मालवन्द नरेशक राजमन्त्री भी राजवंशके था। सालुब मल्लिराय और सालुब देवरायने राजरन थे। उनका नाम पद्म अथवा पाया था। राज. दरबागम उन्हान परवादियांस मफल वाद किया मर्यादाको स्थिर रखनम उनका उल्लेखनीय हाथ
था । कृपयादवने श्रीविद्यानन्दकं पाद-पद्मोंकी था। इमीसे प्रसन्न होकर मालुवेन्द्रन उनको ओगेय- पूजा की थी। कर नामक ग्राम भेट किया । किन्तु पद्म इतने समु
(मंडियावल जैनीज्म, पृष्ठ ३१४-३१८ देख) दार और धर्मवत्सल थे कि उन्होंने वह प्राम मन १५.९ ई०के एक लग्न से स्पष्ट है कि सम्राट जिनधर्म उत्कर्षके लिये दान कर दिया। 'जैन- कृष्णरायक शासनकालमे सङ्गीतपुरका शासनमूत्र जयतु-शासन' सूत्र मूतमान इस प्रकार ही था। गुरुरायकं हाथमे था, जो जेरसप्पे के शासकोंस उन्होंने अपने नामपर 'पद्माकरपुर' नामक ग्राम सम्बन्धित थे। गुरूराय भी अपने पूर्वजोंक समान बसाया था। सन् १४९८ ईमे उन्होंने उस प्रामम जैनधर्मके अनन्य भक्त थे। वह 'रत्नत्रयधर्मागधक' एक भव्य जिनालय निर्माण कराया और उसमे 'जैनधर्मध्वजारोहक'- 'स्वणिम जिनमन्दिरों और भगवान पार्श्वनाथकी दिव्यमति विराजमान की थी। मूर्तियांक निर्माता' कह गर्व है। इन विरुदोंसे उनकी महामण्डलेश्वर इन्दगरस ओडेयरकी इच्छानुसार जिनधर्मक प्रति भक्ति और श्रद्धा प्रगट होती है । उन्होंने उसके लिए भूमिदान दिया था। उस मन्दिर- इनकी सन्ततिमे हुए भैरव नरेशने श्राचार्य वीरसेनमें निरन्तर अभय-ज्ञान-भैपज्य-आहार दान दिया की आज्ञानुसार बंगापुर के त्रिभुवनचुटामणि-वस्ती' जाता था। जैन मन्दिर लोकोपकारक शिक्षा केन्द्र नामक मन्दिरकी छतपर ताँबेके पत्र लगवाये थे । होरहे थे-वे भुवनाश्रय थे। जीवमात्र उनमें पहुंच उनके कुल देव भगवान पार्श्वनाथ और राजगुरु कर अपना आत्मकल्याण करते थे।
पण्डिताचार्य वीरसेन थे। उनकी रानी नागलदेवी महामण्डलेश्रर इन्दगरम मालवेन्द्रनरेशके छोट भी भक्तवत्मला श्राविका थी उन्हाने उपयुक्त मन्दिरक थे। वे महामण्डलेश्वर साङ्गिगजके पुत्र थे। इन्दगरस सम्मुख एक सुन्दर मानस्तम्भ बनवाया था। उनकी (इम्मडि सालवेन्द्र' नाममं प्रसिद्ध थे। उनका नाम पत्रियाँ (१) लक्ष्मीदवी और (२) पण्डितादेवी भी मैनिक प्रवृत्तियोंके कारण वृब चमक रहा था। वह अपनी माँकी तरह धर्मात्मा थी। वे निरन्तर जैन एक बहादुर योद्धा थे । मन १४५१कं एक शिलालेख साधुओको दान दिया करती थी। जब भैरव नरेश