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________________ समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने युत्तयनुशासन सामान्य-निष्ठा विविधा विशेषाः पद विशेषान्तर-पक्षपाति । होना, उसकी दूसरे विशेषों-पर्यायोंमें उपलब्धि देखी अन्तर्विशेषान्तर-वृत्तितोऽन्यत्समानभाव नयते विशेषम ||४० जाती है और इममे मामान्यका सर्व विशेषोंमें निष्ठ (७वीं कारिकामे 'अभेद-भेदात्मकमर्थतत्त्व' इम होना भी बाधित पड़ता है । फलत: दोनोंका निरपेक्ष वाक्यक द्वारा यह बतलाया गया है कि वीरशासनमे रूपसे परस्परनिष्ठ मानना भी बाधित है, उसमें वस्तुतत्वको मामान्य-विशेषात्मक माना गया है, तब दोनोंका ही अभाव ठहरता है और वस्तु आकाशयह प्रश्न पैदा होता है कि जो विशेष है वे सामान्यम कुसुमके समान अवस्तु होजाती है। निष्ठ (परिसमाप्त) है या सामान्य विशेषोंमे निष्ठ है ___(यदि विशेष सामान्यनिष्ठ हैं तो फिर यह शङ्का अथवा सामान्य और विशेष दोनों परस्परमे निष्ठ उत्पन्न होती है कि वर्णममूहरूप पद किसे प्राप्त है ? इसका उत्तर इतना ही है कि) जो विविध विशेप करता है-विशेषको, मामान्यको, उभयको या अनुहै वे मब मामान्यनिष्ठ है-अर्थात एक द्रव्यम रहने भयको अर्थात इनमेमे किसका बोधक या प्रकाशक वाले क्रमभावी और सहभाधीक भेद-प्रभेदको लिये होता है। इसका ममाधान यह है कि) पद जो कि हुये जा परिस्पन्द और अपरिम्पन्दरूप नाना प्रकारक पर्याय' हैं वे मब एक द्रव्यनिष्ठ होनसे ऊर्ध्वना विशेषान्तरका पक्षपाती हाना है-द्रव्य, गुण, कर्म मामान्य में परिममाप्त हैं। और इस लिये विशेषोंमे इन तीन प्रकारकं विशेपोमस किसा एकमे प्रवर्तमान नि सामान्य नहीं है; क्योंकि तब किसी विशेष हुआ दूसरे विशेपोका भी स्वीकार करता है, अस्वीकार करनेपर किमी एक विशेपमे भी उसकी प्रवृत्ति नहीं (पर्याय) के अभाव होनेपर सामान्य (द्रव्य) के भी अभावका प्रसङ्ग आयगा, जो प्रत्यक्षविरुद्ध है-किसी बनती-वह विशेषको प्राप्त कराता है अर्थात द्रव्य, गण और कर्ममसे एकको प्रधानरूपसे प्राप्त कगता भी विशेषके नष्ट होनेपर सामान्यका अभाव नहीं है तो दुमको गीणरूपसे । साथ ही विशंपान्तरोंके १मभावी पर्याय परिस्पन्दरूप है जैसे उत्क्षेपणादिक । सीन को सहभावी पर्याये अपरिस्पन्दात्मक हैं और वे माधारण, विशेषको माRTH सी विशेषको मामान्यरूपमं भी प्राप्त कराता है-यह का साधारणाऽसाधारण पार असाधारणके भेदमे तीन सामान्य नियंकसामान्य होता है । इस तरह पद प्रकार हैं। सत्व-प्रमेयत्वादिक साधारण धर्म हैं, द्रव्यत्व- सामान्य और विशेष दोनोंको प्राप्त कराता है-एक जीवत्वादि साधारणाऽसाधारण धर्म है अोर वे अर्थ को प्रधानरूपसे प्रकाशित करता है तो दूसरेको गौरण पर्याय असाधारण हैं जो द्रव्य द्रव्यके प्रति प्रभिद्यमान रूपसे । विशेषकी अपेक्षा न रखता हया केवल और प्रतिनियत हैं। मामान्य और सामान्यकी अपेक्षा न रखना हश्रा २ सामान्य दो प्रकारका होता है-एक ऊर्ध्वतासामान्य कंवल विशेष दोनों अप्रतीयमान होनेसे अवस्तु हैं, दूमरा तिर्यकमामान्य । क्रमभावी पर्यायोंमें एकत्वान्वय- उन्हे पद प्रकाशित नहीं करता । फलत: परस्पर ज्ञानके द्वारा ग्राह्य जी द्रव्य है वह ऊचंतासामान्य है और निरपेक्ष उभयको और अवस्तुभूत अनुभयको भी पद नाना द्रव्यों तथा पर्यायोम मादृश्यजानके द्वारा ग्राह्य जो प्रकाशित नहीं करता। किन्तु इन सर्वथा सामान्य, महशपरिणाम है वह तिर्यक मामान्य है । सवशा विशेष, सर्वथा उभय और मवथा नुभयसे
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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