________________
o-PRO
AtINARONAL
षडावश्यक-विचार
ल
-
TION
OP
-०७7
[यह ग्रन्थ भी कैराना जिला मुजफ्फरनगरके बड़े मन्दिरकी उसी षटपत्रात्मक ग्रन्थ-प्रतिपरसे उपलब्ध हुश्रा है जिसपरसे गत किरणमें प्रकाशित 'परमात्मराज-स्तोत्र' और उससे पहले की किरणोंमे प्रकाशित 'स्वरूप-भावना' और 'रावण-पार्श्वनाथ-स्तोत्र' उपलब्ध हुए थे और जिन सबको २० जनवरी सन् १९३३को नोट किया गया था । यह नव पद्योंका एक प्रकरण-ग्रन्थ है, जिनमेंसे पहले पद्यमें छह अावश्यकोंके १ सामायिक, २ स्तव, ३ वन्दना, ४ प्रतिक्रमण, ५ प्रत्याख्यान और ६ कायोत्सर्ग नाम देकर लिखा है कि इन क्रियाओंमें जो जीव वर्तमान होता है उसके सवर होता है-कर्मोंका आत्मामें अानाबधना रुकता है । इसके बाद छह पद्योंमें छहों आवश्यकोंका श्राध्यात्मिक दृष्टिसे अच्छा सुन्दर स्वरूप दिया है, जो सहज-बोध-गम्य है। पाठ पद्यमें बतलाया है कि 'निजात्मतत्त्वमें अवस्थित हुश्रा जो योगी निरालस्य होकर (पूर्ण तत्परताके साथ) इम प्रकारसे षडावश्यक करता है उसके पापोंकी गेक होती हैपापासव रुकता है। अन्तके हवे पद्यमें उन चिह्नोंका निर्देश किया है जो ठीक अर्थमें पडावश्यक करने वालोंमें प्रकट होते हैं और वे हैं १ कालक्रमसे उदासीनता, २ उपशान्तता और ३ सरलता । मालूम नहीं इस प्रकरणके रचयिता कौन महानुभाव हैं। जिन विद्वानोको इस विषयमे कुछ मालूम हो उन्हें उसको प्रकट करना चाहिए ।
–सम्पादक] सामायिके' स्तवेभक्तया वन्दनायो' प्रतिक्रमे । प्रत्याख्याने तनूत्सर्गे वतमानस्य मंवरः ॥ १ ॥ यत्सर्व-द्रव्य-मन्दर्भ-रागद्वेष-व्यपोहनम् ।
आत्म-तत्त्व-निविष्ठम्य तत्सामायिकमुच्यते ॥ २ ॥ रत्नत्रयमयं शुद्ध चेतन चेतनात्मकम् । विविक्तं स्तुवतो नित्यं स्तवः स्तूयते स्तवः ॥ ३ ॥ पवित्र-दर्शन-ज्ञान-चारित्रमयमुत्तमम्
आत्मानं वन्दमानस्य वन्दनाऽथि कोविदैः ॥ ४ ॥ कृतानां कर्मणां पूर्व सर्वेषां पाकमीयुषाम् । आत्मीयत्व-परित्यागः प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ ५ ॥ अगम्यागो-निमित्तानां भावानां प्रतिषेधनम् । प्रत्याख्यानं समादिष्टं विविकाऽऽत्माऽवलोकिमिः ॥ ६ ॥ ज्ञात्वा योऽचेतन कायं नश्वरं कर्म-निर्मितम । न तस्य वर्तते कार्ये कायोत्सर्ग करोति सः ॥ ७ ॥ यः षडावश्यकं योगी स्वात्म-तत्त्व-व्यवस्थितः । अनालस्यः करोत्येवं संवृतिम्तस्य रेफसाम् ॥८॥ कालक्रमव्युदासित्वमुपशान्तत्वमार्जषम विज्ञेयानीति चिह्नानि षडावश्यककारिणम ॥ ९ ॥
नवपद्यानि षडावश्यक विचारस्य ।
-RO.
MITHAINA
O OALI
८७