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दर्शाया जा चुका है। इस तरह जब मल्लवादीका जिनभद्रसे पूर्ववर्ती होना सुनिश्चित ही नहीं है तब उक्त प्रमाण और भी निःसार एवं बेकार हो जाता है। साथ ही, अभयदेवका मल्लवादीको युगपद्वादका पुरस्कर्ता बतलाना भी भ्रान्त ठहरता है।
यहाँपर एक बात और भी जान लेनेकी है और वह यह कि हालमें मुनि श्रीजम्बूविजयजीने मल्लवादीके सटीक नयचक्रका पारायण करके उसका विशेष परिचय 'श्री श्रआत्मानन्दप्रकाश' (वर्ष ४५ अङ्क ७)में प्रकट किया है, उसपरसे यह स्पष्ट मालूम होता है कि मल्लवादीने अपने नयचक्रमें पद-पदपर 'वाक्यपदीय' ग्रन्थका उपयोग ही नहीं किया बल्कि उसके कर्ता भर्तृहरिका नामोल्लेख और भतृहरिके मतका खण्डन भी किया है। इन भतृहरिका समय इतिहासमें चीनी यात्री इत्सिनके यात्राविवरणादिके अनुसार ई. सन ६०८से ६५० (वि० सं०६५७से ७०७) तक माना जाता है; क्योंकि इत्सिङ्गने जब सन ६६१में अपना यात्रावृत्तान्त लिखा तब भतृहरिका देहावसान हुए ४० वर्ष बीत चुके थे। और वह उस समयका प्रसिद्ध वैयाकरण था। ऐसी हालतमें भी मल्लवादी जिनभद्रसे पूर्ववर्ती नहीं कहे जा सकते। उक्त समयादिककी दृष्टिसे वे विकमकी प्रायः पाठवी-नवमी शताब्दीके विद्वान हो सकते हैं
और तब उनका व्यक्तित्व न्यायबिन्दुको धर्मोत्तर'-टीकापर टिप्पण लिखनेवाले मल्लवादीके साथ एक भी हो सकता है । इस टिप्पणमें मल्लवादीने अनेक स्थानोंपर न्यायबिन्दुकी विनीतदेव-कृत-टीकाका उल्लेख किया है और इस विनीतदेवका समय गहुलसाकृत्यायनने, वादन्यायकी प्रस्तावनामें, धर्मकीर्तिके उत्तराधिकारियोकी एक तिब्बती सूचापरसे ई० सन् ७७५से ८०० (वि० सं० ८५७) तक निश्चित किया है।
इस सारी वस्तुस्थितिको ध्यानमें रखते हुए ऐसा जान पड़ता है कि विक्रमकी १४वीं शताब्दीके विद्वान प्रभाचन्द्र ने अपने प्रभावकचरितके विजयसिहसूरि-प्रबन्धमें बौद्धों और उनके व्यन्तरोको वादमे जीतनेका जो समय मल्लवादीका वीरवत्सरसे ८८४ वर्ष बादका अर्थात् विक्रम सवत् ४१४ दिया है और जिसके कारण ही उन्हें श्वेताम्बर समाजमें इतना प्राचीन माना जाता है तथा मुनि जिनविजयने भी जिसका एकवार पक्ष लिया है। उसके' उल्लेखमें जरूर कुछ भूल हुई है। पं० सुखलालजीने भी उस भूलको महसुस किया है, तभी उसमें प्रायः १०० वर्षकी वृद्धि करके उसे विक्रमकी छठी शताब्दीका पूर्वार्ध (वि० सं० ५५०) तक मान लेनेको बात अपने इस प्रथम प्रमाणमे कही है। डा० पी० एल० वैद्य एम० ए०ने न्यायावतारकी प्रस्तावनामें, इस भूल अथवा गलतीका कारण 'श्रीवीरविक्रमात्'के स्थानपर 'श्रीर्वारवत्सरान्' पाठान्तरका हो जाना सुझाया है। इम प्रकारके पाठान्तरका हो जाना कोई अस्वाभाविक अथवा असंभाव्य नहीं है किन्तु सहजसाध्य जान पड़ता है। इस सुझावके अनुसार यदि शुद्ध पाठ 'वीरविक्रमात्' हो तो मल्लवादीका समय वि० सं० ८८४ तक पहुँच जाता है और यह समय मल्लवादीके जीवनका प्रायः अन्तिम समय हो सकता है और तब मल्लवादीको हरिभद्रके प्रायः समकालीन कहना होगा; क्योकि हरिभद्रने 'उक्तं च वादिमुख्यन मल्लवादिना' जैसे शब्दांके द्वारा अनेकान्तजयपताकाकी टीकामें मल्लवादीका स्पष्ट उल्लेख किया है। हरिभद्रका समय भी विक्रमकी हवी शताब्दीके तृतीय
१ बौद्धाचार्य धर्मोत्तरका समय पं. राहुलसांकृत्यायनने वादन्यायकी प्रस्तावनामें ई. स. ७२५से ७५०,
(वि. सं. ७८२से ८०७) तक व्यक्त किया है। २ श्रीवीरवत्सरादथ शताष्टके चतुरशीति-संयुक्त । जिग्ये स मल्लवादी बौद्धांस्तव्यन्तरांश्वाऽपि ॥३॥ ३ देखो, जैनसाहित्यसशोधक भाग २