________________
oom |
अनकान्त
1 वर्ष ह
चतुर्थ चरण तक पहुँचता है; क्योंकि वि० सं० ८५७के लगभग बनी हुई भट्टजयन्तकी न्यायमञ्जरीका 'गम्भीरगर्जितारम्भ' नामका एक पद्य हरिभद्रके षड्दर्शनसमुच्चयमें उद्धृत मिलता है, ऐसा न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीने न्यायकुमुदचन्द्रके द्वितीय भागकी प्रस्तावनामें उद्घोषित किया है। इसके सिवाय, हरिभद्रने स्वयं शाखूवार्तासमुच्चयके चतुर्थस्तवनमें 'एतेनैव प्रतिक्षिप्तं यदुक्तं सूक्ष्मबुद्धिना' इत्यादि वाक्यके द्वारा बौद्धाचार्य शान्तरक्षितके मतका उल्लेख किया है और स्वोपज्ञटीकामें 'सूक्ष्मबुद्धिना' का 'शान्तरक्षितेन' अर्थ देकर उसे स्पष्ट किया है । शान्तरक्षित धर्मोत्तर तथा विनीतदेवके भी प्रायः उत्तरवर्ती हैं और उनका समय राहुल सांकृत्यायनने वादन्यायके परिशिष्टोंमें ई० सन् ८४० (वि० सं० ८६७) तक बतलाया है । हरिभद्रको उनके समकालीन समझना चाहिये । इससे हरिभद्रका कथन उक्त समयमें बाधक नहीं रहता और सब कथनोंकी सङ्गति ठीक बैठ जाती है ।
नयचक्र के उक्त विशेष परिचयसे यह भी मालूम होता है कि उस ग्रन्थमें सिद्धसेन नामके साथ जो भी उल्लेख मिलते हैं उनमें सिद्धसेनको 'आचार्य' और 'सूरि' जैसे पदो साथ तो उल्लेखित किया है परन्तु 'दिवाकर' पदके साथ कहीं भी उल्लेखित नहीं किया है. तभी मुनि श्रीजम्बू विजयजीकी यह लिखने में प्रवृत्ति हुई है कि "श्रा सिद्धसेनसूरि सिद्धसेनदिवाकरज सभवतः होवा जोइये” अर्थात् यह सिद्धसेनसूरि सम्भवतः सिद्धसेनदिवाकर ही होने चाहिये-भले ही दिवाकर नामके साथ वे उल्लेखित नहीं मिलने । उनका यह लिखना जनकी धारणा और भावनाका ही प्रतीक कहा जा सकता है, क्योंकि 'होना चाहिये' का कोई कारण साथमें व्यक्त नहीं किया गया। पं० सुखलालजीने अपने उक्त प्रमाणमे इन सिद्धसेनको 'दिवाकर' नामसे ही उल्लेखित किया है, जो कि वस्तुस्थितिका बड़ा ही गलत निरूपण हैं और अनेक भूल-भ्रान्तियोंको जन्म देने वाला है-किसी विपयको विचार के लिये प्रस्तुत करनेवाले निष्पक्ष विद्वानां द्वारा अपनी प्रयोजनादि - सिद्धिके लिये वस्तुस्थितिका ऐसा गलत चित्रण नहीं होना चाहिये | हॉ, उक्त परिचयसे यह भी मालूम होता है कि सिद्धसेन नामके साथ जो उल्लेख मिल रहे हैं उनमेसे कोई भी उल्लेख सिद्धसेनदिवाकरके नामपर चढ़े हुए उपलब्ध ग्रन्थोंमेंसे किसीमें भी नहीं मिलता है। नमूने के तौरपर जो दो उल्लेख परिचयमें उद्धृत किये गये हैं उनका विषय प्रायः शब्दशास्त्र (व्याकरण) तथा शब्दनयादिसे सम्बन्ध रखता हुआ जान पड़ता है। इसमे भी सिद्धसेन के उन उल्लेखांको दिवाकरके उल्लेख बतलाना व्यर्थ ठहरता है ।
रही द्वितीय प्रमाणकी बात, उससे केवल इतना ही सिद्ध होता है कि तीसरी और नवमी द्वात्रिशिका के कर्ता जो सिद्धसेन हैं वे पूज्यपाद देवनन्दीसे पहले हुए है— उनका समय विक्रमकी पाँचवीं शताब्दी भी हो सकता है । इससे अधिक यह सिद्ध नहीं होता कि सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन भी पूज्यपाद देवनन्दीसे पहले अथवा विक्रमकी ५वी शताब्दी में हुए हैं।
१. वीं शताब्दीके द्वितीय चरण तकका समय तो मुनि जिनविजयजीने भी अपने हरिभद्र के समयनिर्णयवाले लेखमे बतलाया है। क्योंकि विक्रमसंवत् ८३५ (शक स० ७००) मं बनी हुई कुवलयमालामे उद्योतनसूरिने हरिभद्रको न्यायविद्यामें अपना गुरु लिखा है । हरिभद्रके समय, सयतजीवन और उनके साहित्यिक कार्योंकी विशालताको देखते हुए उनकी श्रायुका अनुमान सो वर्षके लगभग लगाया जा सकता है और वे मल्लवादीके समकालीन होनेके साथ-साथ कुवलयमाला की रचना के कितने ही वर्ष बाद तक जीवित रह सकते हैं ।
२ " तथा च श्राचार्यसिद्धसेन ग्रह
"यत्र अर्थी वाचं व्यभिचरति न (ना) भिधानं तत् ॥” [वि० २७७]
"अस्ति भवति विद्यति वर्ततयः सन्निपातपष्ठाः सत्तार्था इत्यविशेष खोक्कत्वात् सिद्धसेनसूरिणा ।" [वि. १६६