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________________ समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने युक्त्यनुशासन नाना-सदेकात्म-समाश्रयं चेद्- प्रमंग श्राएगा और व्यक्तियोंके असदात्मकत्व. अद्रव्यत्व. अगुणत्व अथवा अकर्मत्व-रूप होनेपर अन्यत्वमद्विष्ठमनात्मनोः क। सत्सामान्य. द्रव्यत्वसामान्य, गुणत्वसामान्य अथवा विकल्प - शून्यत्वमवस्तुनश्चेत कर्मत्वमामान्य भी व्यक्तित्वविहीन होनेसे अभावतस्मिन्नमेये व खलु प्रमाणम् ॥५५॥ मात्रकी तरह असत ठहरेगा, ओर इस तरह व्यक्ति 'नाना सतो-सत्पदार्थोंका-विविध द्रव्य-गुण तथा मामान्य दोनोंके ही अनात्मा-अस्तित्वविहीनकोका-क आत्मा-एक स्वभावरूप व्यक्तित्व; जैसे होनेपर वह अन्यत्वगुण किसमे रहेगा जिसे अद्विष्ठ -एकमे रहने वाला माना गया है किसीमें भी मदात्मा. द्रव्यात्मा, गुणात्मा अथवा कर्मात्मा-ही। जिसका समाश्रय है ऐसा सामान्य यदि (सामान्य उनका रहना नहीं बन सकता और इसलिए अपने वादियोके द्वारा) माना जाय और उसे ही प्रमाणका व्यक्तियोसे सर्वथा अन्यरूप सामान्य व्यवस्थित नहीं होता।' विपय बतलाया जाय अर्थात यह कहा जाय कि सत्तामामान्यका समाश्रय एक सदात्मा. द्रव्यत्वसामान्यका यदि वह सामान्य व्यक्तियोंसे सर्वथा अनन्य समाश्रय एक द्रव्यात्मा. गुणत्वसामान्यका ममाश्रय (अभिन्न) है तो वह अनन्यत्व भी व्यवस्थित नही एक गुणात्मा अथवा कमत्व सामान्यका समाश्रय होता; क्योकि सामान्यके व्यक्तिमें प्रवेश कर जानेपर एक कर्मात्मा जो अपनी एक सद्व्यक्ति. द्रव्य- व्यक्ति ही रह जाती है-सामान्यकी कोई अलग व्यक्ति. गुणव्यक्ति अथवा कर्मव्यक्तिके प्रतिभास- सत्ता नहीं रहती और सामान्यके अभावमें उस कालमें प्रमाणसे प्रतीत होता है वहीं उससे मिन्न व्यक्तिकी संभावना नहीं बनती इसलिए वह अनात्मा द्वितीयादि व्यक्तियोके प्रतिभास-कालमे भी अभि- ठहरती है. व्यक्तिका अनात्मत्व (अनस्तित्व) होनेपर व्यक्तताको प्राप्त होता है और जिससे उसके एक सत सामान्यके भी अनात्मत्वका प्रसंग आता है और अथवा द्रव्यादिस्वभावकी प्रतीति होती है. इतने मात्र इस तरह व्यक्ति तथा सामान्य दोनों ही अनात्मा आश्रयरूप सामान्य ग्रहणका निमित्त मौजूद है (अस्तित्व-विहीन) ठहरते है; तब अनन्यत्व-गुणकी अतः वह प्रमाण है. उसके अप्रमाणता नहीं है, योजना किसमें की जाय, जिसे द्विष्ठ (दोनोमें रहने क्योकि अप्रमाणता अनन्तस्वभावक समाश्रयरूप वाला) माना गया है किसी में भी उसकी योजना नहीं सामान्यके घटित होती है, तो ऐसी मान्यतावाले बन सकती। और इसके द्वारा सर्वथा अन्य-अनन्यमामान्यवादियोंसे यह प्रश्न होता है कि उनका वह रूप उभय-एकान्तका भी निरसन हो जाता है; क्योंकि सामान्य अपने व्यक्तियोसे अन्य (भिन्न) है या उसकी मान्यतापर दोनों प्रकारके दोषोंका प्रसंग अनन्य (अभिन्न) यदि वह एक स्वभावके आश्रय- आता है। रूप सामान्य अपने व्यक्तियांसे सर्वथा अन्य (भिन्न) 'यदि सामान्यको (वस्तुभूत न मान कर) अवस्त है तो उन व्यक्तियोंके प्रागभावकी तरह असदात्म- (अन्याऽपोहरूप) ही इष्ट किया जाय और उसे कत्व. अद्रव्यत्व, अगुणत्व अथवा अकर्मत्वका विकल्पोंसे शून्य माना जाय-यह कहा जाय कि उसमें
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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