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अनेकान्त
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खरविषाणकी तरह अन्यत्व-अनन्यत्वादिके विकल्प 'यदि इसके विपरीत अन्वयहीन व्यावृत्तिसे ही नहीं बनते और इसलिए विकल्प उठाकर जो दोष साध्य जो सामान्य उमको सिद्ध माना जाय तो वह दिये गये हैं उनके लिए अवकाश नहीं रहता-तो उस भी नहीं बनता-क्योकि मवथा अन्वयरहित अतद्अवस्तुरूप सामान्यके अमेय होनेपर प्रमाणकी व्यावृत्ति-प्रत्ययसे अन्यापाहकी सिद्धि होनेपर भा प्रवृत्ति कहाँ होती है ? अमेय होनेसे वह सामान्य उसकी विधिकी असिद्धि होनेमे --- उस अर्थक्रियाप्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाणका विषय नहीं रहता और रूप साध्यकी सिद्धिके अभावसे-उसमें प्रवृत्तिका इसलिए उसकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती।' विरोध होता है-वह नहीं बनती। और यह कहना (इस तरह दृमरोंके यहाँ प्रमाणाभावके कारण
भी नहीं बनता कि दृश्य और विकल्प्य दोनोके किसी भी मामान्यकी व्यवस्था नहीं बन सकती।)
एकत्वाऽध्यवमायसे प्रवृत्तिके हानेपर माध्यकी मिद्धि
होती है। क्योंकि दृश्य और विकलयका एकत्वान्यावृत्ति-हीनाऽन्वयतो न सिद्धय द्
ध्यवमाय असम्भव है। दर्शन उस एकत्वका अध्यविपर्ययेऽप्यद्वितयेऽपि साध्यम् । वसाय नहीं करता, क्योकि विकलय उमका विपय अतद्ब्युदासाऽभिनिवेश-वादः
नहीं है। दशनकी पीठपर होनेवाला विकल्प भी उस
एकत्वका अध्यवमाय नहीं करता, क्योकि दृश्य पराभ्युपेताऽर्थ-विरोध-वादः ॥५६॥
विकल्पका विपय नहीं है और दानाको विपय करनेवाला 'यदि साध्यको-सत्तारूपपर मामान्य अथवा काई झानान्तर सम्भव नहीं है. जिससे एकत्वा द्रव्यत्वादिरूप अपरसामान्यको-व्यावृत्तिहीन अन्वय ध्यवसाय हो मके और एकत्वाध्यवसायकं कारण से-असतकी अथवा अद्रव्यत्वादिकी व्यावृत्ति (जुदा- अन्वयहीन व्यावृत्तिमात्रले अन्यापाहरूप सामान्यकी यगी)के बिना कवल सत्तादिरूप अन्वय हेतुसे-सिद्ध सिद्धि बन सके। इस तरह स्वलक्षणरूप साध्यकी माना जाय तो वह मिद्ध नहीं होता क्योंकि विपक्ष- मिद्धि नहीं बनती। का व्यावृत्तिके विना सत-अमत अथवा द्रव्यत्व- यदि यह कहा जाय कि अन्वय और व्यावृत्ति अद्रव्यत्वादिरूप माधनांक संकरमे मिद्धिका प्रसंग दानोसे हीन जा अद्वितयम्प हंतु है उसमे सन्मात्रका पाता है और यह कहना नहीं बन सकता कि जो प्रतिभाम न हानसे मत्ताद्वतरूप सामान्यकी सिद्धि सदादिरूप अनुवृत्ति (अन्वय) है वही असदादिकी होती है, तो यह कहना ठीक नहीं है। क्योकि मवथा व्यावृत्ति है, क्योकि अनुवृत्ति (अन्वय) भाव-स्वभाव. अद्वितयकी मान्यतापर माध्य-माधनकी भेदसिद्धि रूप और व्यावृत्ति अभाव-स्वभावरूप है और दोनोमें नहीं बनती और भदको मिद्धि न होनेपर माधनसे भेद माना गया है। यह भी नहीं कहा जा सकता माध्यका सिद्धि नहीं बनती और माधनसे साध्यका कि सदादिके अन्वय पर अमदादिककी व्यावृत्ति सिद्धिके न हानेपर अद्वितय-हतु विरुद्ध पडता है।' सामथ्यसे ही हो जाती है. क्योकि तब यह कहना नहीं यदि अद्वितयका संवित्तिमात्रक रूपमे मानकर बनता कि व्यावृत्तिहीन अन्वयमे उस माध्यकी मिद्धि असाधनव्यावृत्तिस माधनको और असाध्यव्यावृत्तिसे होती है, सामथ्र्यसे अमदादिककी व्यावृत्तिको सिद्ध साध्यको अतद्व्युदासाभिनिवेशवादके रूपमें आश्रित माननेपर तो यही कहना होगा कि वह अन्वयरूप किया जाय तब भी (बौद्धाके मतमे) पराभ्युपेतार्थके हेतु श्रमदादिकी व्यावृत्तिमहित है. उसासे मत्सा- विगंधवादका प्रसङ्ग आता है; अर्थात बौद्धांके द्वारा मान्यकी अथवा द्रव्यत्वादि मामान्यकी सिद्धि होती संवेदनाद्वैतरूप जो अथ पराभ्युपगत है वह अतद्है। और इसीलिए उस सामान्यके सामान्य विशेषा- व्युदासाभिनिवेशवादसे-अतव्यावृत्तिमात्र आग्रहग्ख्यत्वकी व्यवस्थापना होती है।'
वचनम्पसे-विरुद्ध पड़ता है, क्योंकि किसी अमाधन