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किरण 81
समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने
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तथा असाध्यके अर्थाभावमें उनकी अव्यावृत्तिसे
निशायितस्तः परशुः परघ्नः साध्य-साधन-व्यवहारकी उपपत्ति नहीं बनती और
स्वमूर्ध्नि निर्भेद-भयाऽनभिज्ञैः । उनको अर्थ माननेपर प्रतिक्षेपका योग्यपना न होनेसे द्वैतकी मिद्धि होती है। इस तरह बौद्धोंके पूर्वाभ्युपेत
वैतण्डिकैर्यैः कुसृतिः प्रणीता अथके विरोधवादका प्रसङ्ग आता है।'
मुने ! भवच्छासन-दृक -प्रमूढः ॥५८॥ अनात्मनाऽनात्मगतेरयुक्ति
(इस तरह) हे वीर भगवन । जिन वैतण्डिकोंने
-परपक्षके दृषणकी प्रधानता अथवा एकमात्र धुनको वस्तुन्ययुक्त यदि पक्ष-सिद्धिः।
लिये हुए संवेदनाद्वैतवादियोने-कुमृतिका-कुत्मिता अवस्त्वयुक्त प्रतिपक्ष-सिद्धिः गति-प्रतीतिका-प्रणयन किया है उन आपके न च स्वयं साधन-रिक्त-सिद्धिः॥५७॥ (स्याद्वाद) शामनकी दृष्टिसे प्रमृढ एवं निर्भेदके भयसे
अनभिज्ञ जनोने (दर्शनमोहके उदयसे आक्रान्त होनेके (यदि बौद्धाक द्वारा यह कहा जाय कि वे साधन- कारण) परघातक परशु-कुल्हाड़ेको अपने हीमस्तकपर को छानात्मक मानते हैं. वास्तविक नहीं और साध्य
मारा है ।। अर्थात जिस प्रकार दुसरेके घातके लिये भी वास्तविक नहीं है, क्योकि वह संवृतिके द्वारा
उठाया हुआ कुल्हाड़ा यदि अपने ही मम्तकपर पड़ता कल्पिताकाररूप है अतः पराभ्युपेतार्थ के विरोधवाद
है ना अपने मस्तकका विदारण करता है और उसको का प्रसङ्ग नहीं आता है तो ऐसा कहना ठीक नहीं है.
उठाकर चलानेवाले अपने घातके भयसे अनभिज्ञ क्योकि) अनात्मा-निःस्वभाव सवृतिरूप तथा
कहलाते है उसी प्रकार परपक्षका निराकरण करने अमाधनको व्यावृत्तिमात्ररूप-साधनके द्वारा उसी
वाले वैतरिडकांके द्वारा दर्शनमोहके उदयसे श्राक्रान्त प्रकारके अनात्ममाध्यकी जो गति-प्रतिपत्ति (जान
हानेके कारण जिस न्यायका प्रणयन किया गया है वह कारी) है उसकी मर्वधा अयक्ति-अयोजना है-वह
अपने पक्षका भी निराकरण करता है और इस लिये बनता ही नहीं।'
उन्हें भी स्वपक्षघातके भयसे अनभिज्ञ एवं हकप्रमुढ - यदि (संवेदनाद्वैतम्प) वस्तुमें अनात्ममाधनके ममझना चाहिये।' द्वारा अनात्ममाध्यकी गनिकी अयक्तिसे पक्षकी सिद्धि
भवत्यभावोऽपि च वस्तुधर्मो मानी जाय-अर्थात संवेदनाद्वैतवादियांक द्वारा यह कहा जाय कि साध्य-साधनभावस शून्य संवेदनमात्रके
भावान्तरं भाववदहतस्ते । पक्षपनेसे ही हमारे यहाँ तत्त्वमिद्धि है तो (विकल्पि. प्रमीयते च व्यपदिश्यतेच ताकार) अवस्तुमें साधन-साध्यकी अयुक्तिसे प्रति- वस्तु-व्यवरथाऽङ्गममेयमन्यत् ॥५९॥ पक्षकी-दुतकी-भी सिद्धि ठहरती है। अवस्तुरूप (यदि यह कहा जाय कि 'साधनके विना माध्य. माधन अवनतत्त्वम्प माध्यको सिद्ध नहीं करता है, की स्वयं सिद्धि नहीं होती' इस वाक्य के अनुसार क्योकि मा होनेसे अतिप्रसङ्ग पाता है-विपक्षी संवेदनाद्वतकी भी सिद्धि नहीं होती तो मत हो. भी मिद्धि ठहरती है।'
परन्तु शून्यतारूप सर्वका अभाव तो विचारबलसे 'और यदि माधनके विना स्वतः ही संवेदना- प्राप्त हो जाता है, उसका परिहार नहीं किया जा द्वनम्प माध्यकी मिद्धि मानी जाय तो वह युक्त नहीं सकता अतः उसे ही मानना चाहिये तो यह कहना है क्योंकि नव पुरुषाढतकी भी म्वय मिद्धिका प्रसङ्ग भी ठीक नहीं है क्योकि) है वीर अर्हन । आपके
आता है. उसमे किसी भी बौद्धका विप्रतिपत्ति नहीं मतमें प्रभाव भी वस्तुधर्म होता है-बाह्य तथा हो सकती।'
आभ्यन्तर वस्तुके असम्भव हानेपर सर्वशून्यतारूप