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________________ किरण ११] सन्मति-सिरसेना [४६३ - जिस प्रकार कि ईश्वरको कर्ता-हर्ता न माननेवाला एक जैनकवि ईश्वरको उलहना अथवा उसकी रचनामें दोष देता हुश्रा लिखता है "हे विधि ! मल भई तुमतें, समझे न कहाँ कस्तरि बनाई । दीन कुरङ्गनके तनमें, तृन दन्त धरै करना नहि भाई। क्यों न रची तिन जीभनि जे रस-काव्य करै परको दुखदाई । साधु-अनुग्रह दुर्जन-दण्ड, दुहूँ सधते विसरी चतुराई !" इस तरह सन्मतिके कर्ता सिद्धसेनको श्वेताम्बर सिद्ध करनेके लिये जो द्वात्रिशिकाओके उक्त दो पद्य उपस्थित किये गये है उनसे सन्मतिकार सिद्धसेनका श्वेताम्बर सिद्ध होना तो दूर रहा, उन द्वात्रिंशिकाओंके कर्ता सिद्धसेनका भी श्वेताम्बर होना प्रमाणित नही होता जिनके उक्त दोनो पद्य अङ्गरूप हैं । श्वेताम्बरत्वकी सिद्धिके लिये दूसरा और कोई प्रमारण उपस्थित नहीं किया गया और इससे यह भी साफ मालूम होता है कि स्वयं सन्मतिसूत्रमें ऐसी कोई बात नहीं है जिससे उसे दिगम्बरकृति न कहकर श्वेताम्बरकृति कहा जा सके, अन्यथा उसे जरूर उपस्थिन किया जाता । सन्मतिमे ज्ञान-दर्शनोपयांगके अभेदवादकी जो खास बात है वह दिगम्बर मान्यताके अधिक निकट है. दिगम्बरांके युगपवादपरसे ही फलित होती है-न कि श्वेताम्बरोके क्रमवादपरसे, जिसके खण्डनमे युगपद्वादका दलालोको सन्मतिमे अपनाया गया है। और श्रद्धात्मक दर्शन तथा सम्यग्ज्ञानके अभेदवादकी जो बात सन्मति द्वितीयकाण्डकी गाथा ३२-३३मे कही गई है नमके बीज श्रीकुन्दकुन्दाचार्य के समयसार ग्रन्थमे पाये जाते है। इन बीजोकी बातको पं० सुखलालजी आदिने भी सन्मतिकी प्रस्तावना (पृ. ६.)मे स्वीकार किया है-लिखा है कि "सन्मतिना (कांक- गाथा ३०) श्रद्धा-दर्शन अने ज्ञानना एक्यवादनु बीज कुदकुंदना समयसार गा० १-१३ मां' स्पष्ट छे।" इसके मिवाय, ममयमारकी 'जो परमादि अपारणं' नामकी १४वी गाथामें शुद्धनयका स्वरूप बनलाते हुए जब यह कहा गया है कि वह नय आत्माको विशेषरूपसे देखता है तब उसमें ज्ञान-दर्शनोपयोगी भेद-कल्पना भी नहीं बनती और इम दृष्टि से उपयोग-द्वयकी अभेदवादनाक बीज भी ममयसारमै मन्निहित है "सा कहना चाहिये। हाँ, एक बात यहाँ और भी प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि पं० सुखलालजीने 'मिद्धमेनदिवाकरना ममयनो प्रश्न' नामक लेग्यमे देवनन्दी पूज्यपादको "दिगम्बर परम्पराका पक्षपाती सुविद्वान्" बतलाते हुए सन्मतिकं कर्ता सिद्धमेनदिवाकरको "श्वेताम्बरपरम्पराका समर्थक आचार्य" लिखा है. परन्तु यह नहीं बतलाया कि वे किम रुपमें श्वेताम्बरपरम्पराके समर्थक है। दिगम्थर और श्वेताम्बरमे भेदकी रेखा खींचनेवाली मुख्यतः तीन बातें प्रमिद्ध हैं- स्त्रीमुक्ति, २ केवलिभुक्ति (कवलाहार) और ३ मवनमुक्ति, जिन्हें श्वेताम्बर सम्प्रदाय मान्य करता और दिगम्बर सम्प्रदाय अमान्य ठहगता है। इन तीनोमस एकका भी प्रतिपादन सिद्धसेनने अपने किसी ग्रन्थमें नहीं किया है और न इनके अलावा अलंकृत अथवा शृङ्गारित जिनप्रतिमाओके पूजनादिका ही कोई विधान किया है, जिसके मण्डनादिककी भी मन्मतिक टीकाकार अभयदेवसूरिको जरूरत पड़ी है और उन्होंने मूलमे वैमा काई खास प्रसन्न होते १ यहाँ जिस गाथाकी सूचना की गई है वह 'दसणणाणचरित्ताणि' नामकी १६वीं गाया है। इसके अतिरिक्त 'वबहारेणुबदिस्सद णागिस्स चरित्त दसणं गाणं' (७), 'मम्मद सणणाण एसो लहदि त्ति वरि ववदेस' (१४४), और 'णाणं सम्मादिट्ट दु संनम मुत्तमंगपुष्वगयं' (४०४) नामकी गाथाओंमें भी अमेदवादके बीज संनिहित हैं। २ मारतीयविद्या, तृतीय भाग पृ० १५४ ।
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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