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क्योंकि प्रथम तो श्वेताम्बरोंके आवश्यकनिर्यक्ति आदि कल प्राचीन आगमों में भी दिगम्बर आगमोंकी तरह भगवान् महावीरको कुमारभ्रमणके रूपमें अविवाहित प्रतिपादित किया है।
और असुरकुमार-जातिविशिष्ट-भवनवासी देवोंके अधिपति चमरेन्द्रका युद्धकी भावनाको लिये हुए सैन्य सजाकर स्वर्गमें जाना सैद्धान्तिक मान्यताओंके विरुद्ध जान पड़ता है। दूसरे, यह कथन परवक्तब्यके रूपमें भी हो सकता है और आगमसूत्रोमें कितना ही कथन परवक्तव्यके रूपमे पाया जाता है इसकी स्पष्ट सूचना सिद्धसेनाचार्यने सन्मतिसूत्र में की है और लिखा है कि झाता पुरुषका (युक्ति-प्रमाण-द्वारा) अर्थकी सङ्गतिके अनुसार ही उनको व्याख्या करनी चाहिए।
यदि किसी तरहपर यह मान लिया जाय कि उक्त दोनों पद्योमें जिन घटनाओंका उल्लेख है वे परवक्तव्य या अलङ्कारादिके रूपमें न होकर शुद्ध श्वेताम्बरीय मान्यताएँ हैं तो इससे केवल इतना ही फलित हो सकता है कि इन दोनों द्वात्रिंशिकाओं (२,५)के कर्ता जो सिद्धसेन है वे श्वेताम्बर थे। इससे अधिक यह फलित नही हो सकता कि दूसरी द्वात्रिशिकाओं तथा सन्मतिसूत्रके का सिद्धसेन भी श्वेताम्बर थे, जबतक कि प्रबल युक्तियोके बलपर इन सब ग्रन्थोंका का एक ही सिद्धसेनको सिद्ध न कर दिया जाय, परन्तु वह सिद्ध नहीं है जैसा कि पिछले एक प्रकरणमें व्यक्त किया जा चुका है। और फिर इस फलित होनेमें भी एक बाधा और आती है और वह यह कि इन द्वात्रिंशिकाओमे काई कोई बात ऐसी भी पाई जाती है जो इनके शुद्ध श्वेताम्बर कृतियाँ हानेपर नहीं बनती, जिसका एक उदाहरण तो इन दानोंमें उपयोगद्वयके युगपत्वादका प्रतिपादन है, जिसे पहले प्रदर्शित किया जा चुका है और जो दिगम्बर परम्पराका सर्वोपरि मान्य सिद्धान्त है तथा श्वेताम्बर आगमोंकी क्रमवाद-मान्यताके विरुद्ध जाता है। दूसरा उदाहरण पॉची द्वात्रिशिकाका निम्न वाक्य है:
"नाथ त्वया देशितसत्पथस्थाः स्त्रीचेतसाऽप्याश जयन्ति मोहम् । .
नेवाऽन्यथा शीघ्रगतिर्यथा गां प्राची यियामुर्विपरीतयायी ॥२५॥"
इसके पूर्वार्धमें बतलाया है कि हं नाथ ।-रिजिन! श्रापक बतलाय हुए सन्मार्गपर स्थित वे पुरुष भी शीघ्र माहको जीत लेत है--महिनायकमक सम्बन्धका अपने आत्मासे पूर्णतः विच्छेद कर देत है-जा वाचतसः' हात है-स्त्रिया-जैसा चित्त (भाव) रखत है अर्थात् भावली होत हैं। और इससे यह साफ ध्वनित है कि स्त्रियाँ माहको पूर्णतः जातनेमे समर्थ नही होती, ती स्त्रीचित्तके लिय मोहको जातनका बात गौरवका प्राप्त होती है। श्वेताम्बर सम्प्रदायमे जब त्रियाँ भी पुरुषोंकी तरह मोहपर पूर्ण विजय प्राप्त करके उसी भवसे मुक्तिको प्राप्त कर सकता है तब एक श्वेताम्बर विद्वानके इस कथनमें कोई महत्व मालूम नहीं होता कि 'खियो-जैसा चित्त रखनेवाले पुरुष भी शीघ्र माहको जीत लेत है, वह निरथक जान पड़ता है। इस कथनका महत्व दिगम्बर विद्वानांके मुखसे उच्चरित होनेमे हा है जो खाका मुक्तिकी अधिकारिणी नहीं मानते फिर भी स्त्रीचित्तवाले भावत्री पुरुषांके लिये मुक्तिका विधान करते है। अतः इस वाक्यके प्रणेता सिद्धसेन दिगम्बर हाने चाहिये, न कि श्वेताम्बर, और यह समझना चाहिय कि उन्होने इसो द्वात्रिंशिकाके छठे पद्यमे यशोदाप्रिय' पदके साथ जिस घटनाका उलेख किया है वह अलकारकी प्रधानताको लिये हुए परवक्तव्यके रूपम उसी प्रकारका कथन है
१ देखो, श्रावश्यकनियुतिगाथा २२१, २२२, २२६ तथा अनेकान्त वर्ष ४ कि. ११-१२ पृ० ५७९
पर प्रकाशित 'श्वेताम्बरोंमें भी भगवान् महावीरके अविवाहित होनेकी मान्यता' नामक लेख। २ परवत्तम्बयपस्खा अविसिवा तेसु तेसु मुत्तम्। मत्थगईन उतेसि वियजय बारामो कुयार ॥२-१८॥