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________________ किरण . ] कर्म और उसका कार्य ०५७ कि जितने कार्य हान है वे सब चेतनाधिषित ही होतं मिलने है और बुरे कर्म करता है तो बुरी योनि और हैं इम लिये ईश्वर मबका माधारण कारण है। बुर भाग मिलन है। इसीसे कविवर तुलसीदासजीने इमपर यह प्रश्न होता है कि जब सबका कर्ता अपने रामचरितमानसमे कहा हैईश्वर है तब फिर उसने मबको एक-मा क्यों नहीं कम्म प्रधान विश्व करि राग्वा । बनाया ? वह सबको एक-से सुग्न एक-से भांग और जा जम करहि मा तस फल चाग्वा ।। एक-मी बद्धि दे सकता था। म्वर्ग-मोक्षका अधिकारी इम इन्दक पवधि द्वारा ईश्वरवादका समर्थन भी मबका एक-मा बना सकता था। दुग्वी, दरिद्र अरि करनेपर जा प्रश्न उठ खदा होता है, तुलसीदासजाने निकृष्ट यानिवाले प्राणियोंकी उम रचना ही नहीं करनी । उम प्रश्नका इम छन्दके उत्तराध द्वाग ममर्थन करनेथी। उसने ऐमा क्या नहीं किया ? जगतमे ता विष- का प्रयत्न किया है। मता ही विपमना दिग्यलाई देती है। इसका अनुभव नेयायिक जन्यमात्रके प्रति कर्मको साधारण सभाका होता है क्या जीवधारी और क्या जड जितन कारण मानत है। उनके मतम जीवात्मा व्यापक है इस भी पदार्थ है उन मवकी आकृति. स्वभाव और जाति लिय जहा भी उमक उपभागके योग्य कार्यकी सृष्टि जुदी-जुदा है । एकका मल दृमरम नहीं खाना । मनुष्य होता है वहां उमक कर्मका संयोग होकर ही वैमा का ही लीजिये । एक मनुप्यमे दम मनुष्यम बडा होता है। अमेरिकामं बनने वाली जिन माटरी तथा अन्तर है । एक मुम्बा है तो दमग दुग्यो । एकके पास अन्य पदाथोका भारताया द्वारा उपभोग होता है वे मम्पत्तिका विपुल भण्डार है ना दृमग दान-दानका उन उपभोक्ताओंके कानुसार ही निर्मित हात है। भटकता फिरता है। एक मातिशय बुद्धिवाला ह ता इमीस वे अपने उपभोक्ताक पाम खिचे चले श्रात दमग निग मुर्ख । मात्म्यन्यायका ता मवत्र हा बाल- है। उपभांग योग्य वस्तुका विभागीकरण इमी बाला है। बड़ी मछली छोटी मछलीका निगल जाना। हिसाबसे होता है। जिसक पास विपुल सम्पत्ति है चाहती है। यह मंद या तक मामित नहीं है. धम वह उसके कर्मानुमार है और जो निधन है वह भी और धमायतनाम भी इस भेदने अडा जमा लिया है। अपने कानुमार है। कर्म बटवारेमे कभी भी पक्षयदि ईश्वग्ने मनुष्यको बनाया है और वह मन्दिगेम पात नहीं होने देता। गरीब और अमारका भेद तथा बैठा है तो उस तक उसके सब पुत्रांको क्या नहीं जाने स्वामी और मेवकका भंद मानवकृत नहीं है। अपनेदिया जाता है। क्या उन दलालोका. जो दमको अपन कानुसार हा य भंद होत है। मन्दिरमे जानमे रोकते हैं, उसीने निमाण किया है ? मा क्यो है ' जब ईश्वरने ही इस जगतको बनाया जो जन्ममे ब्राह्मण है वह ब्राह्मण ही बना रहता है और वह करुणामय नशा मर्व शक्तिमान है तब है और जा शद्र है वह भद्र ही बना रहता है। उसके फिर उसने जगतकी ऐसी विपम रचना क्यों की? कर्म ही एम है जिसमे जो जाति प्राप्त होती है जीवन यह एक गेमा प्रश्न है जिसका उत्सर नैयायिकांन कर्मको भर वही बनी रहती है। म्वीकार करके दिया है। वे जगनकी इम विषमताका कर्मवादक बाकार करने में यह नैयायिकाकी युक्ति कारण कर्म मानत है। उनका कहना है कि ईश्वर है। वैशेपिकाकी युनिःभी इमसे मिलती जुलती है। जगतका कर्ता है तो मही पर उमने इसकी रचना वे भी नैयायिकांके समान चेतन और अचेतनगत प्राणियोंके कमानुमार की है। इसमे उसका रत्तीभर मब प्रकारकी विषमताका साधारण कारण कर्म मानने भी दाष नहीं है। जीव जैसा कर्म करता है उमीके हैं। यद्यपि इन्होंने प्रारम्भमे ईश्वरवादपर जार नहीं अनुमार उस यानि और भोग मिलते हैं। यदि अच्छे दिया पर परवर्तीकालमें इन्होंने भी उसका अस्तित्व कर्म करता है तो अच्छी यानि और अच्छे भोग म्वीकार कर लिया है।
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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