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________________ १२० अनेकान्त [वर्ष ९ रहे हैं, पत्रोंके विशेषांक निकाल रहे हैं, स्मारक १ लाखसे अधिक सैनिक कभी नहीं हुए। बनवा रहे है । मानों मारा भारत गांधीवादी होगया आश्चर्य तो यह देखकर होता है कि हमारी है। काश लोगोंने अपनी भल ममझी होती, और समाजमे जिन भले मानुसोंने ब्र० शीतलप्रसादका सचमुच हृदय परिवर्तन किया होता जो मतप्त होने- बहिष्कार इसलिये किया कि वे अन्तर्जातीय विवाह का अभिनय कर रहे है काश मचमुच संतप्त हुए होते और दस्सा पूजनको जैनधर्मानुकूल समझते थे। वही तो महात्माजीका मरण भी भारतके लिये वरदान आज अछूतोंक मन्दिर प्रवेश तथा रोटी-बेटी व्यवहार हुआ होता। और विधवा विवाहके प्रबल प्रसारक महात्माजीका ऐसे छद्मस्थ लोगोंके आँसू उम मगरके समान बड़ी श्रद्धा-भक्तिसे कीर्तन कर रहे है। जिन लोगोंने है जो धोखमे डालनेको तो श्राँग्बाम आँस भरे रखता ब्रह्मचारीजीको अपने सभामश्चसे न बोलने दिया, है, पर अपनी करनीसे लहमेभरको भी बाज नहीं वही महात्माजीकी शोक-सभा मन्दिरोम कर रहे है। आता । मन ३२ या ३ महात्माजी जब पहली बार जिन्होंने शिष्टताक नाते उन्हें ब्रह्मचारी तक लिखना दिल्ली की हरिजन कोलोनीमे ठरती सन्ध्याकालोन छोड दिया, मन्दिरामें जानसे रोक दिया, वही श्राज प्रार्थनाके समय काफी जन-समह एकत्र हया। जिनमें महात्माजीका स्मारक बनाने की सोच रहे है, विश्वविलायती वस्त्रोंसे सुजित बनी-ठनी महिलाएँ और वन्दा कहकर अपनी श्रद्धा-भक्ति प्रस्ट कर रहे है। मृटवृट धारी युवक ही ज्यादातर थे। पांव छने जब हम चले नो माया भी अपना न माय दे । लिये अग्रसर होती हुई भीडको देखकर महात्माजी जब वे चलं जमीन चले ग्रास्माँ चले ॥ तनिक ऊंचं म्वरम बोले-"तुम लोग मेरे पाँव छून -जलील के बजाय मेरे मुँहपर थूक देते तो अच्छा था। मैं याद मचमुच यह लोग महात्माजाक जिन सिद्धान्तोंके प्रसार के लिये माग-मारा फिर रहा और श्रद्धालु हुए होते तो बात ही क्या थी। भून है, जिम स्वराज्य-मग्राममे मै लिप्त है. उसमे तो तग किससे नहीं होनी, बड़े-बड़े दापी भी प्रायश्चित करने लोग मेरी तनिक भी सहायता नहीं करते ? उल्टा पर मङ्घमें मिला लिये जाते है। पर नहीं, इनके हृदय जिन विदेशी वस्रोंकी मै होली जलवाता फिर रहा मे उसी तरह हलाहल भरा हुआ है, देशकी प्रगतिमे हूँ, उन्हें ही पहनकर तुम मेरे सामने आते हो? ये बाधक रहे है और रहेगे, सुधार कार्योम सदैव मेरी एक भी बात न मानकर केवल दर्शन करनेम ही विघ्न स्वरूप बने रहेंगे। इनका रुदन केवल दिखावा जीवनकी सार्थकता समझते हो।" मात्र है। महात्माजीके अनुयायियोंक हाथमे आज . सचमुच उस नेतासे बड़ा प्रभागा दनियामे और शासन-सत्ता है इसीलिये इन्होने अपना यह बहरूपिया कौन होसकता है, जिसका जय-जयकार नो सारा वेप बनाया है। शासन-सत्ता जिसके हाथ में हो, वह देश करे, उसे ईश्वर तुल्य पूजे किन्तु आदेशांका चाहे भारतीय हो या अभारतीय, पटवारी हो या पालन मुट्ठीभर ही करते हों। दरोगा उसीके तलुवे सहलानम लोग दक्ष होते है। ऐसे ही छद्मथ अनुयायियोंके कारण नेता २ जाली संस्थाएंधोखा म्वाजाते है । स्वयं महात्माजी भी कई बार ऐसे कुछ धूर्तीका यह विश्वास है कि दुनिया मुखोंस धोखेके शिकार हुए। भारतमै मर्वत्र इस तरहकी श्रद्धा भरी पडी है। इसमे हियक अन्धे और गाँठके पूरे भक्तिसे ओत-प्रोत भीड़को देखकर उन्हे अपने अनु- अधिक और विवेकवुद्धि वाले बहुत कम है। इसी यायियोंकी इस बहुसख्याका गलत अन्दाज होजाता लिय वे धूर्तताके जालमे लोगोंको फैमाते रहते है। था । वे समझ लेते थे, मेरे इशारेपर समूचा भारत हमारी समाजम भी कितनी जाली संस्थाएं ऐसे लोगों तैयार बैठा है। किन्तु युद्ध छेड़नेपर ३५ करोडके देशमे ने कायमकी हुई है। कोई धर्मार्थ औषधालयके नाम
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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