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अनेकान्त
समन्तभद्र -भारत के कुछ नमूने
युक्त्यनुशासन प्रवृत्ति-रक्तः शम-तुष्टि-रिक्त रुपेत्य हिंसाऽभ्युदयाङ्ग-निष्ठा ।
प्रवृत्तितः शान्तिरपि प्ररूढं तमः परेषां तव सुप्रभातम् ॥३८॥ 'जो लोग शम और तुष्टिसे रिक्त हैं-क्रोधादिककी शान्ति और सन्तोष जिनके पास नहीं फटकते-(और इम लिये) प्रवृत्ति-रक्त है-हिमा, झूठ, चोरी, कुशील तथा परिग्रहमे कोई प्रकारका नियम अथवा मर्यादा न रखकर उनमे प्रकर्परूप प्रवृन हैं-आसक्त है-उन (यज्ञवादी मीमांसकों) के द्वारा, प्रवृत्तिको स्वयं अपनाकर, 'हिंसा अभ्युदय (म्वर्गादिकप्राप्ति) के हेतुकी श्राधारभूत है' एमी जो मान्यता प्रचलित की गई है वह उनका बहुत बड़ा अन्धकार है-अज्ञानभाव है। इसी तरह (वेदविहित पशुवधादिरूप) प्रवृत्तिसे शान्ति होती है ऐमी जो मान्यता है वह भी (स्याद्वादमतसे बाह्य) दूसरोंका घोर अन्धकार है क्योंकि प्रवृत्ति रागादिकके उद्रेकरूप अशान्तिकी जननी है न कि अरागादिरूप शान्तिकी। (अन: हे वीरमिन ') आपका मत ही (मकल अज्ञान-अन्धकारको दूर करनेमे समर्थ होनसे) सुप्रभातम्प है, ऐसा सिद्ध होता है।'
शीर्पोपहारादिभिगत्मदुःखेर्देवानकिलाऽऽराध्य सुखाभिगृद्धाः ।
सिद्धयन्ति दोपाऽपचयाऽनपेक्षा युक्तं च तेपां त्वमृपिने येपाम् ॥३९॥ 'जीवात्माकं लिय दुःखके निमित्तभून जो शीर्पोपहादिक है-अपन तथा बकर आदिके सिरकी बलि चढ़ाना, गुग्गुल धारण करना, मकरको भोजन कगना, पर्वतपरसे गिरना जैसे कृत्य हैं--उनके द्वारा (यक्ष-महेश्वरादि) देवांकी पागधना करके ठीक वे ही लोग सिद्ध होते है-अपनको सिद्ध समझते तथा घोपित करते है-जा दीपांक अपचय (विनाश) की अपेक्षा नहीं रखने-सिद्ध होने के लिये गग-द्वेषादि विकारों को दूर करनेकी जिन्हें पर्वाह नहीं है और मुखाभिगृद्ध है-काम मुखादिके लोलुपी हैं ! और यह (मिद्धि-मान्यतारूप प्ररूढ अन्धकार) उन्हींक युक्त है जिनके है वीरजिन ' आप ऋषि-गुरु नहीं है !'-- अर्थात इस प्रकार की घोर अज्ञानताको लिय अन्धेरगर्दी उन्हीं मिध्याष्ट्रियोंके यहाँ चलती है जो आप जैसे वीनदोप-मर्वज्ञ-म्यामीक उपामक नहीं हैं। (फलन') जो शुद्धि और शक्तिकी पराकाष्ठाको पहुँचे हुए आप जैसे देवक उपासक है-आपको अपना गुरु नेना मानते है-(और इमलिय) जो हिमादिकम विरक्तचित्त है, दया-दम त्याग ममाधिकी तत्परताको लिय हुए आपके अद्वितीय शामन (मन) को प्राप्त हैं और नय-प्रमाणद्वाग विनिनित परमार्थकी एव यथास्थित जीवादि तत्त्वाची प्रतिपत्तिम कुशलमन है, उन मम्यग्दृष्टियोंक इम प्रकारकी मिथ्या-मान्यताम्प अन्धेरगर्दी (प्राढतमता) नहीं बननी, क्याक प्रमादम अथवा अशक्तिक कारण कहीं हिमादिकका आचरण करते हुए भी उममें उनके मिथ्या-अभिनिवेशाप पाशके लिय अवकाश नहीं होता-वे उसमे अपनी सिद्धि अथवा आत्मभलाइका होना नहीं मानते।'
[यहाँ तक इम युक्त्यनुशामन स्तोत्रमे शुद्धि और शक्तिकी पराकाष्ठाको प्राप्त हुए वीरजिनेन्द्र के अनेकान्तात्मक म्याद्वादमत (शासन) को पूर्णत: निर्दोष और अद्वितीय निश्चित किया गया है और उससे बाय जो मवथा एकान्तके श्राग्रहका लिये मियामताका ममूह है उस मबका मतपसे निराकरण किया गया है, यह बात मदुर्बुद्धिशालियाको भले प्रकार ममझ लेनी चाहिये।]
स्तोत्रे शुक्त्यनुशामने जिनपनीरस्य निःशेषतः, सप्राप्तम्य विशुद्धि शक्तिपदवीं काष्ठा पगमा श्रिताम । निर्णीत मतमद्वितीयममल मक्षपतोऽपाकृत, तद्वाह्य वितथ मतच मकल मद्धीधनैध्यताम ॥ -विद्यानन्दः