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किरण ८ ]
(५) क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणि काव्यग्रन्थोंके कर्ता वादी सिंहसूरि विद्वत्समाजमें अतिविख्यात और सुप्रसिद्ध हैं ।
arata सिंहसूरकी एक अधूरी अपूर्व कृति स्याद्वाद मिद्धि
(६) पं० के० भुजबलीजी शास्त्री' ई० १००० और ई० ११४७ के नं० ३ तथा नं० ३७ के दो शिलालेखोके आधारपर एक वादीभसिंह ( अपर नाम अजितसेन) का उल्लेख करते हैं।
(७) श्रुतसागरसूरिने भी सोमदेवकृत यशस्तिलक (आश्वास २ १२६) की अपनी टोकामें एक वादीभसिंहका निम्न प्रकार उल्लेख किया है और उन्हें सोमदेवका शिष्य कहा है:
'वादीभसिंहांऽपि मदीयशिष्यः
श्रीवादिराजोऽपि मदीयशिप्यः । इत्युक्तत्वाच ।' वादसिंह और वादी सिंह के य सात उल्लेख हैं अबतककी खोजके परिणामस्वरूप विद्वानोको जैनसाहित्य में मिले है। अब देखना यह है कि ये सातो उल्लेख भिन्न भिन्न है अथवा एक ?
अन्तिम उल्लेखका प्रेमीजी'. पं० कैलाशचन्द्रजी' आदि विद्वान अभ्रान्त और विश्वसनीय नहीं मानते। इसमें उनका हेतु है कि न तो वादीभसिहने ही अपने की मामदेवका कहीं शिष्य प्रकट किया और न बादिराजने ही अपेनेका उनका शिष्य बतलाया है । प्रत्युत वादीभसिंहने तो पुष्पसेन मुनिको और वादिराजने मतमगरको अपना गुरु बतलाया है। दूसरे सोमदेवने उक्त वचन किस ग्रन्थ और किस प्रसङ्गमें कहा, यह सोमदेवके उपलब्ध ग्रन्थोंपरसे ज्ञात नहीं होता । अतः जबतक अन्य प्रमाणोंसे उसका समर्थन नहीं होता तबतक उसे प्रमाणकोटिमे नहीं रखा जा सकता।
अवशिष्ट छह उल्लेग्बो में, मेरा विचार है कि तीसरा और छठा ये दो उल्लेख अभिन्न हैं तथा उन्हें एक दूसरे
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वादीभसिंहके होना चाहिए, जिनका दूसरा नाम मल्लिषेणप्रशस्ति और निर्दिष्ट शिलालेखों में श्रजितसेन मुनि अथवा अजितसेन पंडितदेव भी पाया जाता है. तथा जिनके उक्त प्रशस्तिमें शान्तिनाथ और पद्मनाभ अपरनाम श्रीकान्त और वादिकोलाहल नामके दो शिष्य भी बतलाये गये हैं । इन मलिषेणप्रशस्ति और शिलालेखका लेखनकाल ई० ११२८, ई० १०६० और ई० ११४७ है और इस लिये इन वादोभसिंहका समय लगभग ई० १०६५ से ई० ११५० तक हो सकता है। बाकी चार उल्लेख- पहला, दूसरा, चौथा और पाँचवाँ - प्रथम वादीभसिंहके होना चाहिए, जिन्हें 'वादिसिंह' नामसे भी साहित्य में उल्लेखित किया गया है। वादीभसिह और वादिसिंहके अर्थमें कोई भेद नहीं है- दोनोंका एक ही अर्थ है । चाहे वादीरूपी गजोके लिये सिंह' यह कहो. चाहे वादियोंके लिये सिंह' यह कहो - एक ही बात है ।
१ देखो, जैन सिद्धान्तभास्कर भाग ६, कि० २, पृ० ७८ । २ देखो, ब० शीतल प्रसादजी द्वारा सङ्कलित तथा अनुवादित 'मद्रास व मैसूर प्रान्त के प्राचीन स्मारक' नामक पुस्तक । ३ देखो, जैनसाहित्य और इतिहास पृ० ४८० | ४ देखो, न्यायकुमुद प्र० भा० प्रस्ता० पृ० ११२ ।
यदि यह निष्कर्ष निकाला जाय कि क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणि इन प्रसिद्ध काव्यग्रंथोके कर्ता वादीभसिंहसूरि ही स्याद्वादसिद्धिकार है और इन्हींने आप्तमीमांसापर विद्यानन्दसे पूर्व कोई टीका अथवा वृत्ति लिखी है जो लघुसमन्तभद्रके उल्लेख परसे जानी जाती है तथा इन्ही वादसिंहका 'वादिसिंह' नामसे जिनसेन और वादिराजने बड़े सम्मानपूर्वक स्मरण किया है। तथा 'स्याद्वादगिरामाश्रित्य वादिसिहस्य गर्जिते वाक्यमें वादिराजने 'स्याद्वादगिर' पदके द्वारा इन्हीकी प्रस्तुत स्याद्वादसिद्धि जैमी स्याद्वादविद्या से परिपूर्ण कृतियोकी ओर इशारा किया है तो कोई अनौचित्य नहीं प्रतीत होता । इसके औचित्यको सिद्ध करनेके लिये नीचे कुछ प्रमाण भी उपस्थित किये जाते हैं।
(१) क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणिके मङ्गलाचरणोंमे कहा गया है कि जिनेन्द्र भगवान् भक्तोंके समीहित (जिनेश्वरपदप्राप्ति) को पुष्ट करें - देवें । यथा(क) श्रीपतिर्भगवान्पुष्याद्भक्तानां वः समीहितम् । यद्भक्तिः शुल्कतामेति मुक्तिकन्याकरमहे ||१|| - क्षत्रचू० १-१ ।